संस्कृत मन्त्र -
मननेन त्रायते इति मन्त्रः | ||
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जो मनन करने पर त्राण दे वह मन्त्र है। मन्त्र भी एक प्रकार की वाणी है,
परन्तु साधारण वाक्यों के समान वे हमको बन्धन में नहीं डालते, बल्कि बन्धन
से मुक्त करते हैं।
प्रथम ब्रह्म मुहूर्त में उठने का अभ्यास करें |यह अत्यन्त ही सुनहरा समय है ,क्योंकि जब तक सूर्योदय नहीं होता तब तक माया सोती रहती है | इसी समय संगीतज्ञ संगीत का ,विद्यार्थी विद्या का तथा योगी महात्मा -आसन प्राणायाम आदि करते हैं | उठने के पश्चात् सर्वप्रथम अपने हाथों के दर्शन करने चाहिये और यह मन्त्र बोलना चाहिये - कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती | करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम् ||
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ॐ त्र्यबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। | ||
तीन नेत्रों वाले (भगवान शंकर) का हम यजन(ध्यान, पूजन) करते हैं,जो
सम्पूर्ण जगत का धारण, पोषण तथा संवर्धन करते हैं।वे उर्वारूक के बन्धन से
छूटने के समान(ककड़ी जिस प्रकार पक जाने पर बेल से स्वतः मुक्त हो जाती
है), मृत्यु से मोक्ष के लिये अमृत के द्वारा (वे हमारे समस्त कष्टों को
हरें।)
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असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥ | ||
हे परमेश्वर !
हमें
असत् से (अज्ञान से) सत् (सत्यज्ञान) की ओर ले चलो।
अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मृत्यु से अमृत(मोक्ष) की ओर ले चलो।
श्री सरस्वती स्तुति - या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता , या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना | या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता , सा माम पातु सरस्वती भगवती निः शेष जाड्.यापहा|| अर्थात् जो कुन्द के फूल , चन्द्रमा ,बर्फ और हार के समान श्वेत हैं ,जो शुभ्र वस्त्र पहनती हैं , जिनके हाथ उत्तम वीणा से शुशोभित हैं ,जो श्वेत कमलासन पर बैठतीं हैं |ब्रह्मा ,विष्णु , महेश देव आदि जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जडता हर लेती हैं , वे भगवती सरस्वती मुझे ज्ञान दें || श्रीतुलसी नामाष्टक - वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी | पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी || एतन्नामाष्टक चैव स्त्रोत्रं नामार्थसंयुतम् | यः पठेत्तां च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत् || अर्थात् वृन्दा ,वृन्दावनी ,विश्वपुजिता ,विश्वपावनी ,पुष्पसारा ,नन्दिनी तुलसी और कृष्ण जीवनी ये तुलसी के आठ नाम हैं | यह सार्थक नामावली स्तोत्र के रूप में परिणित है |जो तुलसी की पूजा करके इस ' नामाष्टक ' का पाठ करता है ,उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है || ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधिनो नित्यशंकितः | परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ||( विदुरनीति.अध्याय 1.श्लोक 95) अर्थात् ईर्ष्या व घृणा करने वाला ,असंतोषी ,क्रोधी ,सदा शंकित रहने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवन -निर्वाह करने वाला -ये छः सदा दुःखी रहते हैं || व्रतानि सर्वं दानानि तपांसि नियमास्तथा | कथितानि पुरा सद्भिधीवर्थ नात्र संशयः ||( शिवपुराण .शिव ही परतत्व 24) व्रत ,दान,तप , नियम-यह सब प्राचीन ऋषियों ने रुद्र रूप ईश्वर के ध्यान के लिये बनाये हैं || पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः | नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः ||( सुभाषित . भण्डागार . 51.170 ) नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीतीं ,वृक्ष स्वयं अपना फल नहीं खाते ,बादल फसलों का उपयोग स्वयं नहीं करते ,सज्जनों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही होती हैं ॥ नीति श्लोक (1) यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दाऽनुगामिनी | विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि || अर्थात् जिसका पुत्र वश (अर्थात् उसका कहना मानता है ) में है ,जिसकी स्त्री आज्ञानुसार चलने वाली है ,धन की जिसके पास न्यूनता नहीं है , ऐसे मनुष्य के लिये इसी संसार में स्वर्ग है | ( चाणक्य नीति .अध्याय 2) (2) कान्तावियोगः स्वजनापमानः ऋणस्य शेषं कुनृपस्य सेवा | दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निनैते प्रदहन्ति कायम् || अर्थात् पत्नी का वियोग ,अपने जनों से प्राप्त अनादर ,बचा हुआ ऋण ,दुष्ट राजा की सेवा ,दरिद्रता और मूर्खों की सभा - ये सब अग्नि के बिना ही शरीर को जलाते हैं | (चाणक्य नीति .अध्याय 2 ) | ||