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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

३३ - ४२ ज्ञान की महिमा

३३ - ४२ ज्ञान की महिमा । 

 श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ||
अर्थात्  हे परंतप अर्जुन !द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है ,तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण
 कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ॥  ३३ ॥ 

तदिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ||
अर्थात् उस ज्ञान को  तत्वदर्शी ज्ञानियों  के पास जाकर समझ , उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से , उनकी सेवा करने से,और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्व को भली भाँति जानने वाले ज्ञानी  महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ॥ ३४ ॥ 

यज्ज्ञात्वा  न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव |
येन भूतान्यशेषेण द्रक्षस्यात्मन्यथो  मयि ||
अर्थात्  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा तथा हे अर्जुन !जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों  को निःशेष भाव से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानंदघन  परमात्मा में देखेगा  ॥ ३५ ॥ 

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः |
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ||
अर्थात् यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है ;तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण  पाप -समुद्र से भली- भांति तर जायेगा ॥ ३६ ॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||
 अर्थात् क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों  को भस्ममय कर देता है  ,वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों  को भस्ममय कर  देता है ॥ ३७ ॥
 
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ||
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्म योग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने - आप हि आत्मा में पा लेता है ॥३८ ॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ 
  अर्थात् जितेन्द्रिय , साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के-तत्काल ही  भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ ३९ ॥

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं  संशयात्मनः ||
 अर्थात् विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है ,न परलोक है और न सुख ही है।।४०।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।
अर्थात् हे धनञ्जय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,ऐसे वश में किये हुए अंतः करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।।४१।।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्तवैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।
अर्थात् इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।।४२।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः।।४।।

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नवरात्रारम्भ गुड़ी पड़वा

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा गुड़ी(विजय पताका) पड़वा
नवरात्र का प्रारम्भ ही हिन्दू नववर्ष का भी प्रारम्भ होता है । मान्यता है की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि का आरंभ हुआ था । इस समय प्रकृति का सुन्दर्य और सकारात्मक ऊर्जा दोनों ही बहुत रमणीय होते हैं। ये ऊर्जा मानो हमें सक्रिय होने का सन्देश देती है । हिन्दू नव वर्ष या नव संवत्सर का प्रारम्भ हो रहा है । इसे विक्रम संवत भी कहा जाता है । ऐसी मान्यता है की राजा विक्रमादित्य ने इसकी शुरुआत की थी ।
पौराणिक ग्रंथों की मान्यता है कि इस दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी । ब्रह्मपुराण में लिखा है 
''चैत्र मासि  जगद् ब्रह्मा संसर्ज प्रथमे अहनि |
शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ||
अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि कि रचना चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सुर्योदय होने पर की | इस दिन वतावरण  मे उष्मा का प्रवाह  तीव्र होता है | इस ऊर्जा प्रवाह  के प्रभाव से प्रत्येक जीव मात्र,वनस्पतियाँ तथा पुष्पों  में भी नई  ऊर्जा गतिमान होती है।ऐसी मान्यता है कि शालिवाहन नाम के एक कुम्हार के लड़के ने मिटटी के सैनिकों की सेना बनाई और उसमें प्राण फूंक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया । इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक  का प्रारम्भ हुआ । कई लोगों की मान्यता है की इसी दिन श्रीराम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर- घर में उत्सव मनाकर ध्वज(गुड़ियाँ)फहराई । इसी लिए  इसे गुड़ी पड़वा  के नाम से भी जाना जाता है ।  
 दुर्गा शक्ति का पर्याय है और हर किसी को शक्ति चाहिए । किसी को प्रेम की शक्ति ,किसी को ज्ञान की शक्ति ,किसी को सत्य की शक्ति और किसी को भक्ति की शक्ति चहिये। देवी दुर्गा के स्वरूप में हमें इन सभी शक्तियों  का आभास होता है । हममें  भी सभी शक्तियाँ अन्तर्निहित है किन्तु यदि इन शक्तियों  के होते हुए भी जब तक हम मानसिक रूप से उसे स्वीकार नहीं करते तब तक समस्त शक्तियाँ हमारे लिए व्यर्थ हैं । नवरात्र में माँ दुर्गा की आराधना का यही अर्थ है कि हम अपने भीतर की शक्ति को पहचानें और उसे सही दिशा में कार्यान्वित करें । इस समय  प्रकृति नई  ऊर्जा से सराबोर होती है । प्राणियों  में भी यह ऊर्जा स्फूर्ति ,उल्लास और क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होती है । इस शक्ति का उपयोग हमें सकारात्मक  और सृजनात्मक कार्यों में करना चाहिए न कि नकारात्मक और विध्वंशक कार्यों में।