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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

श्रीगीताजी की महिमा
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वास्तव में श्रीमद्भागवद्गीता का महात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है ;क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है |इसमें संपूर्ण वेदों का सार सार संग्रह किया गया है |इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है लि थोडा सा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है ;परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता |प्रतिदिन नये -नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं ,इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा- भक्ति सहितविचार करने से इसके पद-पद में परम रहस्य  भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है |भगवान् के गुण ,प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीता शास्त्र में किया गया है ,वैसा अन्य ग्रन्थों में मिलना कठिन है ;क्योंकि प्रायः ग्रन्थों में कुछ ना कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है |भगवान् ने ''श्रीमद्भगवद्गीता''रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है श्रीवेदव्यासजी ने महाभारत में गीताजी का वर्णन करने के उपरान्त कहा है-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः | 
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृताः ||
 'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात्   श्रीगीताजी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्तः करण  में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है ;(फिर ) अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ?' स्वयं श्रीभगवान् ने इसके महात्म्य का वर्णन किया है 
(अ .१ ८ श्लोक ,६८ से ७१ तक ) | 
इस गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है ,चाहे वह किसी भी वर्ण ,आश्रम में स्थित हो ;परन्तु भगवान् में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये ;क्योंकि भगवान् ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के
लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि ,स्त्री ,वैश्य,शूद्र और पाप योनि भी मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं (अ. ९ श्लोक ३२ );अपने - अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं (अ. १८ श्लोक ४६ )-इन सब पर विचार करने से यही ज्ञात होता है की परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार होता है । परन्तु उक्त विषय के मर्म को न समझने के कारण बहुत से मनुष्य ,जिन्होनें श्रीगीता का नाममात्र ही सुना है ,कहा दिया करते हैं की गीता तो केवल सन्यासियों के लिए ही है ;वे अपने बालकों को भी इसी भय से श्रीगीताजी का अभ्यास नहीं कराते की गीता के ज्ञान से बालक घर छोड़कर कदाचित संन्यासी न हो
 जाये ;किन्तु उनको विचार करना चाहिए कि मोह के कारण क्षात्रधर्म से विमुख  होकर भिक्षा के अन्न से निर्वाह करने के लिए तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया ,उस गीता शास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है ।अतएव कल्याण
की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है की मोहा का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकों को अर्थ और भाव सहित श्रीगीताजी का अध्ययन कराएं एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन   करते हुए भगवान  आज्ञानुसार साधना करने में तत्पर हो जाएं ;क्योंकि  अतिदुर्लभ  मनुष्य -शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दुःखमूलक  क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है | 

श्रीगीताजी का प्रधान विषय
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श्री गीताजी में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिये मुख्य दो मार्ग बतलाये हैं --एक साङ्ख्य योग ,दूसरा कर्मयोग -उनमें
  1. संपूर्ण पदार्थ मृग तृष्णा के जल की भांति अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश मायामय होने से माया के कार्यरूप संपूर्ण गुण ही गुणों में बर्तते हैं ,ऐसे समझकर मन,इन्द्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना (अ.५ श्लोक ८-९) तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव के सिवाय अन्य किसी के भी होने का भाव न रहना ,यह  तो साङ्ख्य योग का साधन है तथा
  2. सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि -असिद्धि में समत्व भाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा त्याग कर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवान् के लिये ही केवल सब कर्मों का आचरण करना (अ.२ श्लोक ४८,अ.५ श्लोक १०) तथा श्रद्धा भक्ति पूर्वक मन ,वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान् के शरण होकर नाम गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करना (अ.६ शलोका४७),यह कर्मयोग का साधन है |उक्त दोनों साधनों का परिणाम एक होने के कारण वे वास्तव में अभिन्न माने गये हैं (अ.५ श्लोक ४-५) |परन्तु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों का भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न - भिन्न बतलाये गये हैं (अ.३ श्लोक ३)| इसलिये एक पुरुष दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं चल सकता ,जैसे श्रीगङ्गाजी पर जाने के लिये दो मार्ग होते हुये भी एक मनुष्य दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं जा सकता | उक्त साधनों में कर्मयोग का साधन संन्यास आश्रम में नहीं बन सकता ;क्योंकि सन्यास आश्रम में कर्मों का स्वरूप से भी त्याग कहा गया है और सान्ख्ययोग का साधन सभी आश्रमों में बन सकता है |यदि कहो कि सान्ख्ययोग को भगवान् ने सन्यास के नाम से कहा है ,इसलिये उसका संन्यास आश्रम में ही अधिकार है ,गृहस्थ में नहीं ,तो यह कहना ठीक नहीं है ;क्योंकि दूसरे अध्याय में श्लोक ११से ३०तक जो सान्ख्यनिष्ठा का उपदेश किया गया है ,उसके अनुसार भी भगवान् ने जगह - जगह अर्जुन को युद्ध करने की योग्यता दिखाई है | यदि गृहस्थ में साङ्ख्य योग का अधिकार ही नहीं होता तो भगवान् का इस प्रकार कहना कैसे बन सकता ? हां , इतनी विशेषता अवश्य है कि साङ्ख्यमार्ग का अधिकारी देहाभिमान से रहित होना चाहिये ;क्योंकि जब तक शरीर में अहं भाव रहता है तब तक सान्ख्ययोग का साधन भली प्रकार समझ में नहीं आता | इसी से भगवान् ने साङ्ख्ययोग को कठिन बतलाया है (अ.५ श्लोक ६) तथा (कर्मयोग ) साधन में सुगम होने के कारण अर्जुन के प्रति जगह -जगह  कहा है कि तू निरन्तर मेरा चिन्तन करता हुआ कर्मयोग का आचरण कर |
गीता  - महात्म्य

जो मनुष्य शुद्ध चित्त होकर प्रेम पूर्वक इस पवित्र गीता शास्त्र का पाठ  करता है ,वह भय और शोक आदि से
 रहित होकर विष्णु धाम को प्राप्त कर लेता है ||१||

 जो मनुष्य सदा गीता का पाठ करने वाला है तथा प्राणायाम में तत्पर रहता है उसके इस जन्म और पूर्व जन्म में किये हुए समस्त पाप निः संदेह ही नष्ट हो जाते हैं || २||

जल में प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्यों के केवल शारीरिक मल का नाश करता है ,परन्तु गीता ज्ञान रूप जल में एक बार भी किया हुआ स्नान संसार मल को नष्ट करने वाला है ||३||

जो साक्षात् कमलनाभ भगवान् विष्णु के मुखकमल से प्रकट हुई है ,उस गीता का ही भली भांति गान (अर्थ सहित स्वाध्याय ) करना चाहिये , अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ||४||

जो महाभारत का अमृतोपम सार है तथा जो भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है ,उस गीतारूप गङ्गा जल को पी लेने पर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना पड.ता ||५||

संपूर्ण उपनिषदें गौ के समान हैं , गोपालनन्दन श्री कृष्ण दुहने वाले हैं ,अर्जुन बछङा  है तथा महान गीतामृत ही उस गौ का दुग्ध है और शुद्ध बुद्धिवाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है || ६||  

देवकीनन्दन श्रीकृष्ण का कहा हुआ गीताशास्त्र ही एकमात्र उत्तम शास्त्र है ,भगवान् देवकी नन्दन ही एकमात्र महान् देवता हैं ,उनके नाम ही एकमात्र मन्त्र हैं और उन भगवान् की सेवा ही एकमात्र कर्तव्य कर्म है ||७||

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