Pages - Menu

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

श्रीदुर्गासप्तशती shriDurgashaptasati,

श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनाम्स्त्रोतम्
शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने |
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गाप्रीता भवेत् सती ||
ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचिनी |
आर्या दुर्गा जया चाद्यात्रिनेत्रा शूलधारिणी ||
पिनाकधारिणी चित्रा   चण्डघण्टा   महातपाः |
मनो बुद्धिरहङ्कारा चित्तरूपा चिता   चितिः ||
सर्वमन्त्रमयी    सत्ता   सत्यानन्दस्वरुपिणी |
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ||
शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा |
सर्वविद्या    दक्षकन्या       दक्षाविनाशिनी ||
अपर्णानेकवर्णा   च   पाटला   पाटलावती |
पट्टाम्बरपरिधाना     कलमञ्जीररञ्जिनी ||
अमेयविक्रमा  क्रूरा   सुन्दरी     सुरसुन्दरी |
वनदुर्गा  च  मातङ्गी  मतङ्गमुनिपूजिता ||
 ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा |
चामुण्डा  चैव   वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ||
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा |
बहुला          बहुलप्रेमा          सर्ववाहनवाहना  ||
निशुम्भशुम्भहननी             महिषासुरमर्दिनी |
मधुकैटभहन्त्री       च        चण्डमुण्डविनाशिनी ||
सर्वासुरविनाशा          च       सर्वदानवघातिनी |
सर्वशास्त्रमयी सत्या   सर्वास्त्रधारिणी    तथा ||
अनेकशस्त्रहस्ता  च  अनेकास्त्रस्य   धारिणी |
कुमारी चैककन्या  च   कैशोरी  युवती   यतिः ||
अप्रौढा    चैव    प्रौढा    च   वृद्धमाता    बलप्रदा |
महोदरी     मुक्तकेशी      घोररूपा     महाबला ||
अग्निज्वाला    रौद्रमुखी    कालरात्रितपस्विनी |
नारायणी    भद्रकाली   विष्णुमाया    जलोदरी ||
शिवदूती    कराली    च    अनन्ता   परमेश्वरी |
कात्यायिनी च  सावित्री   प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ||
य    इदं    प्रपठेन्नित्यं     दुर्गानामशताष्टकम् |
नासाध्यं  विद्यते  देवि  त्रिषु लोकेषु   पार्वति ||
धनं   धान्यं  सुतं    जायां   हयं  हस्तिनमेव  च |
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ||
कुमारीं पूजयित्वा  तु  ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् |
पूजयेत्   परया   भक्त्या   पठेन्नामशताष्टकं ||
तस्य   सिद्धिर्भवेद्   देवि    सर्वेः     सुरवरैरपि |
राजानो दासतां  यान्ति  राज्यश्रियमवाप्नुयात् ||
गोरोचनालक्तककुङ्कुमेन
                                 सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण   ||
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो
                               भवेत् सदा धारयते पुरारिः ||
भौमावास्यानिशामग्रे    चन्द्रे   शतभिषां    गते|
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां  पदम् ||
इति श्रीविश्वसारतन्त्रेदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं  समाप्तम् ||
नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनायें |
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी |
तृतीयं चन्द्रघण्तेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ||
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च |
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गा प्रकीर्तिताः ||
मां अम्बे की आरती
ओ अम्बे तू है जगदम्बे काली , जय दुर्गे खप्पर वाली , तेरे ही गुण गायें भारती ,
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
तेरे जगत के भक्त जनों पर भीड. पडी है भारी मां , भीड. पडी है भारी ,
दानव दल पर टूट पडो मां -2 करके सिंह सवारी ,
सौ - सौ सिंहों से तू बलशाली ,अष्ट भुजाओं वाली , दुष्टों को तू ही ललकारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
नहीं मांगते धन और दौलत ना चान्दी ना सोना मां , ना चान्दी ना सोना,
हम तो मांगें मां तेरे मन में -2 एक छोटा सा कोना ,
सबकी बिगडी बनाने वाली ,लाज बचाने वाली ,सतियों के सत को संवारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
मां बेटे का है इस जग में बडा ही निर्मल नाता मां , बडा ही निर्मल नाता ,
पूत कापूत सुने हैं पर ना -2 माता सुने कुमाता ,
सबपे करुणा बरसाने वाली , अमृत बरसाने वाली ,नइया भंवर से उबारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
चरण - शरण में खडे हुए हैं ले पूजा की थाली मां , ले पूजा की थाली,
मानवाञ्छित फल देदो माता -2 जाये ना कोई खाली ,
सबके कष्ट मिटाने वाली , झोली भर देने वाली ,दुखियों के दुःख को निवारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
बोलो अम्बे मात की जय |

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

उपनिषद् - ईशावास्योपनिषद्

ईशावास्योपनिषद
यह ईशावास्योपनिषद्  शुक्लयजुर्वेद  काण्वशाखीय संहिता का चालीसवाँ अध्याय है । मंत्र-भाग
 अंश होने से इसका विशेष महत्त्व है । यह  सबसे पहला उपनिषद्  है । शुक्लयजुर्वेद के  प्रथम
 उनतालीस अध्यायों में कर्मकाण्ड का निरूपण हुआ है यह उस काण्ड का सबसे अंतिम अध्याय है
 और इसमे ईश्वरतत्त्वरूप ज्ञानकाण्ड का निरूपण किया गया है ।  मंत्र में "ईशा -वास्यम्" वाक्य
 आने से इसका नाम "ईशावास्य" माना गया ।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पुर्नमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
अर्थ-वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है ।क्यूंकि पूर्ण से
ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण है , इसलिए भी वह
परिपूर्ण है । उस पूर्ण ब्रह्मा में से पूर्ण को निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही बचा रहता है ।
त्रिविध ताप  की शांति हो ।

ॐ ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ १ ॥
अर्थ -मनुष्यों के प्रति वेद के पवित्र आदेश हैं की इस जगत में जो कुछ भी स्थावर -जङ्गम है ,वह
 सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है अर्थात उसे भगवत्स्वरूप ही अनुभव करना चाहिए । उसके
त्याग भाव से तू अपना पालन कर ,अर्थात सब कुछ ईश्वर का है यह समझकर केवल कर्त्तव्य
पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो ।

 कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरा ॥ २॥
अर्थ -इस लोक में शास्त्र नियत कर्त्तव्य कर्मों को करते  हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें ।
इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए कर्म बंधन से मुक्त होने का इसके सिवा
और कोई मार्ग नहीं है । जिससे तुझे (अशुभ)कर्म का लेप ना हो ।

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।
 ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अर्थ - मानव शरीर अन्य सभी शरीरों से श्रेष्ठ और परम दुर्लभ है एवं वह जीव को भगवान की
विशेष कृपा से जन्म - मृत्युरूप संसार-समुद्र से तरने के लिए ही मिलता है । ऐसे जीवन को पाकर
भी जो मनुष्य केवल विषयों की प्राप्ति और उनके उपभोग में ही में लगे हुए हैं ,वे अपना ही पतन
 कर रहे हैं । वे न केवल अपने जीवन को व्यर्थ खो रहे हैं बल्कि अपने  को और भी अधिक कर्म
बंधन में जकड़ रहे हैं । इन काम -भोग-परायण लोगों को चाहे वे कोई भी क्यों ना हों ,उन्हें चाहें
संसार  में कितने ही विशाल नाम ,यश ,वैभव या अधिकार प्राप्त हों मरने के बाद कर्मों के
फलस्वरूप बार -बार उन कूकर -शूकर ,कीट ,पतंगादि विभिन्न शोक -संतापपूर्ण आसुरी योनियों
में और भयानक नरकों में भटकना पड़ता है । इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि  मनुष्य को
 अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए ,अपना पतन नहीं करना चाहिए (६/५) ॥

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४ ॥
अर्थ -  वो परमेश्वर एक अचल और एक ही है ,वह मन से भी अधिक तीव्र वेग युक्त है । जहाँ तक मन की गति है ,वे उससे भी कहीं आगे पहले से ही विद्यमान हैं । मन तो वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता है । वे सबके आदि  और ज्ञानस्वरूप हैं ।पर उनको तो देवता तथा महर्षि भी पूर्ण रूप से जान नहीं  सकते (गीता १०. १२)जितने भी तीव्र
वेग युक्त बुद्धि ,मन और इन्द्रियाँ अथवा वायु आदि देवता हैं ,अपनी शक्ति भर परमेश्वर के अनुसंधान में दौड़ लगाते रहते हैं ;परन्तु परमेश्वर नित्य अचल रहते हुए ही उन सबको पार करके आगे निकल जाते हैं । वे सब वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते ।असीम की सीमा का पता ससीम को कैसे लग सकता है।बल्कि वायु आदि देवताओं में जो शक्ति है ,जिसके द्वारा वह जलवर्षण ,प्रकाशन ,प्राणिप्राणधारण आदि कर्म करने में समर्थ होते हैं वह इन अचिन्त्य शक्ति परमेश्वर की शक्ति का एक अंश मात्र ही है । उनका सहयोग मिले बिना ये सब कुछ भी नहीं कर सकते ॥