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शनिवार, 7 जनवरी 2023

देवनागरी लिपि का उद्भव एवं विकास

देवनागरी लिपि का उद्भव -
 देवनागरी लिपि का उद्भव आठवीं सदी के मध्य  कुटिल लिपि से होना पाया जाता है ।इसका प्रचार उत्तर भारत में नवीं सदी के अंतिम चरण से मिलता है। नागरी  का उल्लेख जैन ग्रंथ नंदी सूत्र में सबसे पहले मिलता है। देवनागरी की प्रथम स्पष्ट झलक आठवीं शताब्दी के राजा दंतिदुर्ग द्वितीय के दान पात्रों में दृष्टिगोचर हुई। राजा दंतिवर्मन ने 747 ईस्वी से 753 ईस्वी तक दक्षिण में राज्य किया। इन्होंने 753 में अपने तीन ताम्रपत्र अंकित करवाएं ।जो समनगढ़ के पहाड़ी दुर्ग से प्राप्त हुए। यह दुर्ग बेलगाँव से 24 मील दूर कोल्हापुर जनपद में स्थित है। इस दक्षिणी देवनागरी को नंदीनागरी के नाम से संबोधित करते थे। नंदी नगर बेंगलुरु से 36 मील उत्तर की ओर स्थित है। इस देवनागरी लिपि का नंदी नगर में अधिक प्रयोग रहा है । इस कारण यह लिपि  नंदी नागरी कहलाने लगी ।उत्तरी भारत में देवनागरी लिपि का प्रयोग सबसे पहले कन्नौज के प्रतिहार वंशी राजा महेंद्र पाल के 798 ईसवी के दानपात्र में मिलता है। इसके बाद तो अनेक राजवंशों के शिलालेखों एवं दान पात्रों में तथा सामान्य जन के लेखों में देवनागरी का प्रयोग दिखाई देने लगा । नागरी लिपि को ही नागर या *देवनागरी लिपि* कहा जाता है। 

इसके नाम के संबंध में बहुत से मतभेद हैं जैसे-
1. गुजरात के नागर ब्राह्मण द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ गया ।
2.प्रमुखतः  नगरों में प्रचलित होने के कारण इसे  नागरी कहा  गया।
3. कुछ लोगों के अनुसार ललित बिस्तर में उल्लिखित नागर लिपि नागरी लिपि है।
3. तांत्रिक चिह्न  देव नगर से साम्य होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया ।
4. आर. श्याम शास्त्री के अनुसार देव नगर से उत्पन्न होने के कारण ही यह देवनागरी और फिर नागरी  कही गई।

 उपर्युक्त सभी मत अनुमान पर आधारित हैं। अतएव किसी को भी बहुत प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
 *देवनागरी लिपि का विकास* 
देवनागरी लिपि निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर होती रही है। डॉक्टर गौरीशंकर ओझा के अनुसार 10 वीं सदी की लिपि में अ, आ, क ,म, य, ष, स के सिर दो हिस्सों में विभक्त मिलते हैं परंतु 11 वीं सदी में नागरी लिपि के यह दोनों अंश मिलकर सिर की एक लकीर बन जाती है । प्रत्येक अक्षर का शीर्ष इतना लंबा रहता है कि जितना उस अक्षर की चौड़ाई रहती है । 11 वीं सदी की नागरी वर्तमान नागरी  से मिलती है ।12 वीं सदी से वर्तमान रूप स्थिर सा मिलता है। केवल इ, घ की  आकृति में पुरानापन नजर आता है। ओ, ए ,ऐ, औ  की मात्राओं में कुछ अंतर प्राप्त होता है । वैसे भाषा विज्ञान की ध्वनि विषयक सूक्ष्मताओं की दृष्टि से इसे बहुत वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता । इसी कारण डॉ सुनीति कुमार चटर्जी  जैसे विद्वान इसे छोड़कर रोमन लिपि को अपना लेने के पक्ष में हैं।
पूरे हिंदी प्रदेश की यह लिपि है । मराठी भाषा में भी कुछ परिवर्तन के साथ यह प्रयुक्त होती है। संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश के लिए भी यही लिपि प्रयुक्त होती है। 14 वीं 15 वीं शताब्दी में नागरी लिपि का विकास दो स्रोतों में विभक्त हो गया था।
 प्रथम -पूर्व शाखा । 
द्वितीय- मध्य देशीय शाखा ।
पूर्व शाखा -----
1.बिहारी लिपि- यह लिपि बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले में प्रचलित है ।लगभग सौ -डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिपियों का अत्यधिक प्रचार था। कायस्थ जाति के ही अधिकतर लोग कार्यालयों और कचहरियों में लिखने पढ़ने का कार्य करते थे। इसलिए इसका नाम कैथी प्रचलित हुआ। इसका प्रमुख क्षेत्र बिहार है। इसके तीन स्थानीय रूप भी हैं ।
1.भोजपुरी कैथी  2.तिरहुति कैथी 3.मगही कैथी
 मैथिली लिपि_इसका क्षेत्र मिथिला है। यह बंग्ला से बहुत मिलती-जुलती है ।
 मध्यदेशीय शाखा के बारे में स्थान की दृष्टि से विचार किया जाए तो देवनागरी मध्यप्रदेश की लिपि है किंतु इस क्षेत्र में देवनागरी के अतिरिक्त भी अन्य लिपियाँ प्रचलित हैं । जैसे-
 *1.गुजराती लिपि-* यह संपूर्ण गुजरात के कार्यालयों और मुद्रण के लिए प्रयुक्त होती है ।वास्तव में यह पूर्व देवनागरी का ही विकसित रूप है।
 *2.महाजनी लिपि-* भारत में जहां कहीं भी मारवाड़ी है वह अपना बहीखाता इसीलिए भीम लिखते हैं यह लिपि शीघ्र लेखन में प्रयुक्त होती है।
 *3.मौड़ी लिपि-* इसका प्रचार महाराष्ट्र में कुछ दिनों पूर्व पर्याप्त मात्रा में था। किंतु  आजकल उसका प्रचार कम हो गया है । इस प्रकार 10 वीं शताब्दी से लेकर आज तक देवनागरी के स्वरूप में परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। चूंकि भाषा और समाज सदैव उन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं अतः देवनागरी में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । किंतु इसकी प्रधान *कमियाँ* निम्न प्रकार हैं-
1. इसमें  कुछ  अक्षर या लिपि चिह्न  आज के उच्चारण की दृष्टि से व्यर्थ हैं।जैसे  'ऋ' का  'रि' है ।'ष' का  उच्चारण 'श' है।
2.'ऋ' और 'ष'  की आवश्यकता नहीं थी, 'रि' और 'श' से काम चल सकता था।
3.ख में र और व के भ्रम की संभावना है।
अतः इसके लिए पूरे चिह्न  की आवश्यकता है।  'व' का उच्चारण दो प्रकार का है - 1.दो होठों से।  
2. दांत और होंठ से ।परंतु चिह्न  एक ही है। अथवा 'व'  के एक और चिह्न  की आवश्यकता है।
4. संयुक्त व्यंजनों के रूप में बड़े गड़बड़ियां हैं - जैसे प्रेम में लगता है कि 'र' आधा और 'प' पूरा है पर यथार्थतः  इसका उल्टा है। इस पद्धति में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
5. 'इ' (।ि )की मात्रा बङी  अवैज्ञानिक है । इसे जिस स्थान पर लगाया जाना चाहिए वहाँ लगाना संभव नहीं है । उदाहरणार्थ चंद्रिका शब्द लें। इसे तोड़कर इस प्रकार लिख सकते हैं -
 च्+अ+।ि+न्+द्+र्+क्+आ
यहाँ  स्पष्ट है कि मात्रा 'न्' के पहले लगी है पर इसे र के बाद लगना चाहिए ।
रोमन लिपि  में इसे शुद्ध लिखा जाता है - CHANDRIKA.
 इस अशुद्धि के निवारण के लिए कोई रास्ता निकलना चाहिए।
6. 'र' कार के 'र' , 'द्र' , तथा रेफ वाले र केवल एक के ही प्रचलन की आवश्यकता थी।
7.  क्ष, त्र, ज्ञ आदि स्वतंत्र लिपि चिन्ह की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्वतंत्र ध्वनियाँ  ना होकर संयुक्त व्यंजन मात्र हैं।
8.उ,ऊ,ए, ऐ की मत्राएँ नीचे या ऊपर लगती है पर यथार्थतः इन्हें व्यंजन के आगे लगना चाहिए। इसके लिए भी कोई रास्ता निकालना चाहिए।
9. कुछ अक्षरों के रूप में प्रचलित हैं-  ल,अ,प्र,ण,औ, या इनमें से एक ही स्वीकार करने तथा दूसरे को निकाल देने की आवश्यकता है।
10. कुछ स्वरों के कई रूप हो गए हैं परंतु उनके लिए या उनकी मात्राओं के लिए चिह्न  नहीं है। 'समझना'  में 'म' में 'अ' है । अंत्य 'अ' जिसका उच्चारण प्रायः  नहीं के बराबर होता है । जैसे राम के 'म' में  'अ' है।

*देवनागरी लिपि की विशेषताएँ* नागरी लिपि के लंबे विकास के पश्चात आज इस रूप में देवनागरी विद्यमान है , उसकी अपनी निजी विशेषताएँ हैं। यह अपनी  वैज्ञानिकता के कारण प्रसिद्ध है और इसी कारण यह  आर्य सर्वव्यापी तथा राष्ट्रलिपि  के रूप में विख्यात है --
1.देवनागरी लिपि की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें जो बोला जाए वही लिखा जाए ,तथा  जो लिखा जाए वह बोला जाए । यह बात संसार की अन्य लिपियों में नहीं पाई जाती है ।जैसे रोमन में लिखते हैं BUT और पढ़ते हैं 'बुट', लिखते हैं KNOW और पढ़ते हैं 'नो'।
इसमें एक ध्वनि  के लिए एक ही लिखित रूप स्वीकार किया जाता है। यह  रोमन लिपि की भांति  नहीं है। यहाँ 'क' की अभिव्यक्ति के लिए C ,K, Q  तथा 'ज' ध्वनि के लिए J, G, Z  आदि कई वर्ण मिलते हैं ।
3.नागरी लिपि का प्रत्येक वर्ण अपनी पूर्णता के साथ  उच्चरित होता है ,परंतु रोमन में ऐसा नहीं होता है,जैसे HALS में ' L' मूक है परंतु KNEE ( नी), KNOW(नो), इनमें K वर्ण मूक है ।
4.नागरी की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसके वर्गीकरण का वैज्ञानिक रूप है । नागरी वर्णों को मुख्यतः दो वर्णों में विभाजित किया जाता है। इसमें स्वरों को प्रारंभ में रखा गया है और व्यंजनों को अंत में ।
संसार की अन्य लिपियाँ उच्चारण तथा प्रयोग की दृष्टि से इतनी वैज्ञानिक नहीं है । इसमें सभी स्वर और व्यंजन मिलाए जाएँ  तो 47 अथवा 48 चिह्न पाए जाते हैं । जो लगभग भारत की सभी लिपियों में विद्यमान हैं।
5. यह संसार की अनेक भाषाओं को व्यक्त करने की क्षमता रखती है। देवनागरी वैज्ञानिकता की कसौटी पर नागरी लिपि का प्रत्येक पक्ष वैज्ञानिकता के सुदृढ  आधार पर टिका है। देवनागरी लिपि तो विश्लेषण एवं संयोग  दोनों धरातलों पर सरलतम वैज्ञानिक पद्धति का परिचय देती है।
देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सर्वप्रथम आधार एक ध्वनि के लिए ही लिपि संकेत का प्रयोग है । इस गुण के कारण प्रयोक्ता को लिपि प्रयोग के समय पर्याप्त सुगमता का अनुभव होता है । रोमन लिपि वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है क्योंकि उसमें एक ध्वनि के लिए अनेक संकेतों का प्रयोग होता है 'क' के लिए ( अथवा K  जैसे key, cake, एवं  chemistry)
देवनागरी लिपि में मूल स्वरों के  हृस्व और दीर्घ रूपों का प्रयोग होता है।अ,आ,इ,ई, उ,ऊ इस स्पष्ट भेद के कारण भाषा की विभिन्न ध्वनियों को सूक्ष्मता से अंकित किया जा सकता है। यह विशेषता देवनागरी की वैज्ञानिकता का पुष्ट प्रमाण है। इसी वैज्ञानिकता के कारण कल , काला, कला ,काल जैसे भिन्नार्थक किंतु वर्तनी की दृष्टि से प्रायः समरूपी शब्दों को शुद्धता से लिपिबद्ध किया जा सकता है।
रोमन लिपि में हृस्व और दीर्घ स्वरों की स्पष्ट अभिव्यक्ति की व्यवस्था का सर्वथा अभाव है  । परिणाम स्वरूप रोमन में लिखित JALA को जल, जाल ,जाला, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि देवनागरी में हृस्व और दीर्घ स्वरों की अलग-अलग व्यवस्था के कारण शब्दों को स्पष्ट रूप में लिख पाना संभव है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक चिन्ह में प्रायः एकरूपता होती है।
उदाहरण के लिए प लिपि संकेत को शिरोरेखा युक्त तथा शिरोरेखा विहीन दोनों ही अवस्थाओं में एकरूपता दिखाई देती है। रोमन लिपि में प्रत्येक चिन्ह के कैपिटल तथा  स्माल दो रूप होने के कारण पर्याप्त विविधता पाई जाती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि देवनागरी प्रायः समस्त कसौटियों पर वैज्ञानिक लिपि सिद्ध होती है।