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रविवार, 10 अगस्त 2014

संस्कृत भाषा (वर्तमान समय में संस्कृत की दिशा और दशा)

संस्कृत दिवस की शुभ कामनाएं

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वर्तमान समय में संस्कृत की दिशा और दशा ----

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संस्कृत भाषा विश्व की प्राचीनतम एवं श्रेष्ठतम भाषा है |आज भी स्वल्प
मात्रा में ही सही संस्कृत वाङ्गमय का प्रणयन हो रहा है ,पत्रिकाओं का
प्रकाशन हो रहा है मञ्च पर नाटक अभिनीत होते हैं तथा धाराप्रवाह भाषण 
दिये जाते हैं |इतना ही नहीं काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भरतीयों  के
सांस्कृतिक  तथा धार्मिक कृत्यों ,पूजा पद्धतियों एवं संस्कारों में
संस्कृत भाषा का समान रूप से प्रयोग होता है | इस प्रकार संस्कृत भाषा उपमा
 आदि अलङ्कारों ,माधुर्यादि गुणों से विभूषित एवं श्रङ्गारादि रसों में
परिलिप्त विश्व प्राङ्गण में शोभायमान है |

विभिन्न पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत भाषा का अध्ययन किया एवं इस निष्कर्ष पर
पहुंचे कि संस्कृत साहित्य संसार के सभ्य साहित्यों में अनुपम तथा अद्वितीय
 है इसकी प्राचीनता एवं व्यापकता ,सांस्कृतिक मूल्य ,और सौन्दर्य दृष्टि
सभी क्षेत्रों में यहाँ विश्व के किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकता है ।
संस्कृता भाषा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी शास्त्रीय उच्चारण पद्धति है ।
स्वर शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान भारतीय मनीषियों ने ''नाद''
विज्ञान का गंभीर अन्वेषण किया था ।
सत्य ,अहिंसा एवं विश्व बंधुत्व ,विश्व संस्कृति के तत्व सर्वप्रथम वेदों
एवं संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में ही प्राप्त होते हैं ।साहित्य समाज का
दर्पण होता है समाज जिस प्रकार का होगा वह उसी भाँति साहित्य में
प्रतिबिंबित रहता है ।  संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से सदैव अपनी
मधुर झांकी दिखलाया करती है ।
संस्कृति के उचित प्रचार एवं प्रसार का श्रेष्ठ साधन साहित्य ही है ।
संस्कृत भाषा दिव्य गुण सम्पन्न है । विभिन्न भाषाओं में देव स्तुति एवं
संपूर्ण देवकार्य संस्कृत में ही होते हैं । देवताओं के आह्वाहन के लिए
संस्कृत का ही प्रयोग होता है । इसीलिए इसे देवावाणी ,अमरगिरा ,सुरभारती
,गीर्वाणी ,आदि शब्दों से अलंकृत किया जाता है ।

वेद - वेदांग ,उपनिषद ,आरण्यक ,ब्राह्मण ग्रन्थ ,स्मृति ग्रन्थ ,पुराण
,महाभारत ,रामायण ,आदि शास्त्र संस्कृत भाषा में ही निबद्ध हैं । संस्कृत
भाषा में देवांगनाओं एवं उनके अखंड यौवन का वर्णन अद्वितीय है । इसीलिए
इसकी सराहना सभी जगह की जाती है । संस्कृत लिपि वैज्ञानिक है ।

इसकी वर्णमाला वैज्ञानिकों के लिये आज भी  पथ प्रदर्शक बनी हुई है |संस्कृत
व्याकरण विज्ञान की जड. मानी जाती है |इस प्रकार सभी गुण संस्कृत की
दिव्यता में प्रस्फुटित होते हैं | संस्कृत का  सौन्दर्य अवर्णनीय है | विश्व
 की अनेक भाषाओं के कलाकार संस्कृत भाषा के सामने नतमस्तक हैं |

संस्कृत -साहित्य जीवन की विषम परिस्थितियों के भीतर से भी आनन्द की खोज
में सदा संलग्न रहा है | आनन्द-सच्चिदानन्द भगवान का विशुद्ध रूप है |

भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति
ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है | इसीलिये संस्कृत साहित्य में
गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है |
संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी
पर घूमता है |दशरथ का आदर्श पितृत्व ,  कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का
आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा
सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही
विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है |
भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है |संस्कृत वाङ्गमय
जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का 
साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है |जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म
विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो |
कविता विलास कालिदास ने भी साहित्य रचना संस्कृत भाषा में ही की है |
घतखर्पर ने कालिदास की प्रशंसा करते हुए कहा है -
" पुष्पेषु  चम्पा , नगरीषु काञ्ची |
नदीषु गंगा , नृपतौ च रामः ||
नारीषु रम्भा , पुरुषेषु विष्णुः |
काव्येषु माघः , कवि कालिदासः || ''

कालिदास की तो उपमा सौन्दर्य ही चित्त कॊ आश्चर्य चकित कर देती है ,दूसरे
भारवि का अर्थगौरव तथा दण्डी की  पदलालित्य  लीला मन को गदगद कर देती है |
माघ की रचनाओं में तीनों उपर्युक्त कवियों के गुणों का संगम देखने को
मिलता है इसी प्रकार संस्कृत के समालोचकों ने इस प्रकार कहा है -
'' उपमाकालिदासस्य , भारवेरर्थगौरवं |
दण्डिनः पदलालित्यं , माघे सन्ति त्रयो गुणाः || ''

प्रायः सभी संस्कृत  कवियों ने प्रकृति का मनोहारी वर्णन अपनी रचनाओं  में
किया है इसीलिये कहा जाता है कि संस्कृत भाषा जैसी सरसता ,इसकी कोमलकान्त
पदावली संस्कृत साहित्य में ही परिलक्षित होती है ,अन्यत्र किसी भी भाषा
में नहीं |कालिदास के विषय में बाणभट्ट की निम्न उक्ति वास्तव में रमणीय है
 --
'' निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिसु |
प्रीतिर्मधुरसान्द्रसु मञ्जरीष्विव जायते || ''

मानव जीवन का आकर्षण बढता गया एवं संस्कृत भाषा को दिशा मिलती गई |संस्कृत भाषा तथा
साहित्य के अध्ययन में अत्यधिक अभिरुचि का परिचय देने वाला व्यक्ति हेनरी
टामस कोल्ब्रुक है ,इन्होंनें ही सबसे पहले  अपनी गम्भीरता तथा उद्योगशीलता
 से संस्कृत वाङ्गमय के लगभग सभी क्षेत्रों से संबन्धित निबन्धों का
प्रकाशन किया एवं वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया | इन्होंनें कतिपय
गौरवशाली ग्रन्थों का मूलपाठ और अनुवाद भी प्रस्तुत किया |इनके द्वारा
प्रस्तुत सामग्री परवर्ती विद्वानों के लिये बहुत उपकारिणी सिद्ध हुई |
संस्कृत साहित्य के अनुशीलन के लिये तुलनात्मक ,ऐतिहासिक,और वैज्ञानिक
दृष्टि प्रदान करने में पाश्चात्य विद्वानों का बहुत योगदान है |ग्रन्थों
के सम्पादन ,सुन्दर संस्करणो को प्रस्तुत करने में भी पाश्चात्य विद्वानों
की अहम भूमिका रही है | वर्तमान समय में संस्कृत भाषा एवं संस्कृत साहित्य
का अत्यधिक महत्व है एवं विश्व में संस्कृत भाषा का सम्मान विश्व की समस्त
भाषाओं में सर्वोच्च है |

ऋग्वेद में वर्णित संस्कृत  ही संस्कृत की जननी है --
''सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्वधारा ''
जिसकी उद्घोषणा प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ई.एच .जोनस्टन  ने इन शब्दों में की ----

''प्राचीन भारतीय विद्वानों को 'नाद' और 'ध्वनि तरंगों ' के विविध प्रकार
के मधुर संगम से जो महान अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है वह अन्य भाषा एवं
साहित्य से असंभव है |
महाकवि विजयदेव के गीत गोविन्द हृदय के लिये रसायन है अतः कहा गया है ---
'' मधुरकोमलकान्त पदावली श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम् |''
सुरभारती की सरसता का अनुभव सरविलियम जान्स -गेटे-विल्सन आदि पाश्चात्य विभूतियों  ने सब कुछ छोड.कर संस्कृत साहित्य के उपासक बनने की शिक्षा दी है |विल्सन ने संस्कृत माधुर्य का अवलोकन कर इस प्रकार कहा है --
''अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |
देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || ''
जनश्रुति है कि राजा भोज ने एक लकड.हारे के सिर पर बोझ देखकर परादुःखकातर हो उससे संस्कृत में पूछा कि तुम्हें यह बोझ कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है और 'बाधति 'क्रिया का प्रयोग किया |इस पर लकड.हारे ने उत्तर दिया --
'महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के  स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है | इसी प्रकार से उस जुलाहे की बात हम कभी नहीं भूल सकते ,जिसने संस्कृत में अपना परिचय देते समय कहा था --
'' काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि |
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि |
भूपाल - मौलिमणि -मण्डित पाद पीठ |
हे साहसाकं ! कवयामि वयामि यामि ||''
अंततः कहा जा सकता है कि जिस भाषा को रथ हाँकने वाला ,लकङी का बोझा उठाने वाला ( लकड.हारा ) और कपङा बुनने वाला ( जुलाहा ) समझे और बोले उसे बोलचाल की भाषा न कहना महान् अपराध ही है |संस्कृत भाषा आधुनिक विद्वानों और अनुशीलकों के मत से विश्व की पुराभाषाओं में संस्कृत सर्वाधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और संपन्न भाषा है। वह आज केवल भारतीय भाषा ही नहीं, बल्कि विश्वभाषा भी है। यह कहा जा सकता है कि भूमंडल के प्रयत्न-भाषा-साहित्यों में कदाचित् संस्कृत का वाङ्गमय सर्वाधिक विशाल, व्यापक, चतुर्मुखी और संपन्न है। संसार के प्राय: सभी विकसित और संसार के प्राय: सभी विकासशील देशों में संस्कृत भाषा और साहित्य का आज अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।



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