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मंगलवार, 26 मई 2015

महाकवि कालिदास

महाकवि कालिदास
जीवनवृत्त
भारतीय  साहित्य कि विभूति सम्पूर्ण कविकुल सम्राट कालिदास काव्य जगत के दैदीप्यमान रत्न हैं |
काव्य रसिकों ने इन्हें कविता -कामिनी -विलास कहा है |समालोचकों ने प्राचीन कवियों की गणना में कालिदास को 'कनिष्ठिकाधिष्ठित 'बताकर उनकी स्पर्धा में ठहरने वाले किसी अन्य प्रतिस्पर्धी कवि के अस्तित्व की संभावना का ही खंडन  किया है -
''पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः |
अद्यापि तत्तुल्य कवेर्भावदनामिका सार्थवती बभूवः ||''
जैसी किंवदन्ती कालिदास की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करती है |आचार्य आनन्दवर्धन ने भी कवि की गणना विश्व विख्यात महाकवियों में की है -
''अस्मिन्नतिविचित्रकविपरम्परावाहिनि संसारे कालिदासप्रभृतयो द्वित्राः पञ्चषा एव वा महाकवय इति  गण्यते। ''
 अर्थात् इस अतिविचित्र कवियों की परम्परा को वहन करने वाले संसार में कालिदास आदि दो तीन या पांच छः ही कवि गिने जाते हैं | ''(ध्वन्यालोक १/६)
 महाकवि हमारे राष्ट्रीय कवि हैं तथा भारतीय  संस्कृति के प्रमुख परिपोषक भी |इनकी काव्य वाणी में संपूर्ण भारत की संस्कृति बोलती है |कालिदास ने जैसा मानव हृदय के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का निरीक्षण किया वैसा अन्य ने नहीं ,कालिदास अन्तर तथा बाह्य दोनों जगत् के सूक्ष्म निरीक्षक कवि हैं |
संस्कृत साहित्य के उपवन में कालिदास का समागम एक ''वसन्त दूत ''के रूप में हुआ है । उन्होंने संस्कृत भाषा को वाणी दी ,नए भाव ,नई  दिशाएँ ,नए विचार और नई पद्धतियाँ दी हैं ।
कालिदास संस्कृत के सबसे बड़े कवि और नाटककार हुए । परवर्ती संस्कृत ,हिंदी एवं कुछ विषयों में विदेशी कवि भी कालिदास के ऋणी हैं । जर्मनी के प्रसिद्ध कवि ''गेटे ''के ''फ़ाउस्ट ''नामक नाटक में शाकुन्तल का प्रभाव परिलक्षित होता है । महाकवि कालिदास के विषय में बड़े -बड़े विद्वानों  विचार प्रकट किये हैं ।
मैकडोनल के शब्दों में ''कालिदास की कविता में भारतीय प्रतिभा का उत्कृष्ट रूप समाविष्ट है । उनके काव्य में भावों का ऐसा सामंजस्य है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । (ए हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिट्रेचर,पृ. ५५३ )
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में '' भारतीय धर्म , दर्शन , शिल्प और साधना में जो कुछ उदात्त है ,जो कुछ ललित और मोहन है ,उनका प्रयत्न पूर्वक सजाया सँवारा रूप कालिदास का काव्य है । ''
कालिदास की समता तो आज तक कोई और कवि कर ही नहीं पाया । उनकी सभी रचनाओं में अत्यंत प्रेम और भाव विभोर कर देने वाली अविनाशिनी शक्ति विद्यमान है । अतः दो सहस्र वर्षों बाद भी उनकी रचनाएँ यथावत आनंददायक हैं ।संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट ने लिखा है -
                              ''निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु ।
                                  प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते ॥ ''
मेघदूत की प्रसंशा करते हुए मनोमुग्ध होकर यूरोपीय विद्वजनों ने अपने योरोप के साहित्य में किसी काव्य को इसकी समता के योग्य नहीं माना । मिस्टर मोन फांचे (Mr.Mon Fanche ) ने कहा है - 
''There is nothing so perfect in the elegiac litreature of Europe as the Meghaduta of Kalidas.''
एक अन्य जर्मन विद्वान ने कहा है -
''There exist for instance in our European litreature few pieces to be compared with the Meghaduta in Sentiment and beauty.''
अभिज्ञानशाकुंतलम कालिदास की सर्वोत्कृष्ट रचना है । यह सात अङ्क का नाटक है इसमें हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त और महर्षि कण्व की पालिता धर्म -कन्या शकुन्तला की प्रणयगाथा निबद्ध है । महर्षि कण्व की अनुपस्थिति में उनके तपोवन में दुष्यंत और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है ,और वही मिलन ''गन्धर्व विवाह'' का रूप धारण कर लेता है । राजा दुष्यंत महर्षि कण्व के आगमन से पूर्व ही अपनी राजधानी को प्रस्थान करते समय अपनी प्रियतमा शकुन्तला को स्वनामांकित मुद्रिका देते हुए कहते हैं कि - यह मेरी याद दिलाएगी । इसी बीच अतिथि सत्कार में शकुन्तला की असावधानी दुर्वासा ऋषि के शाप का कारण बनती है । किन्तु उसकी दोनों सखियों को यह रहस्य पता है कि शापवश राजा शकुन्तला को देखकर तब तक नहीं  पहचान सकेगा , जब तक वह किसी ''अभिज्ञान ''का दर्शन ना कर ले । महर्षि कण्व आश्रम में लौट कर शकुन्तला के '' गन्धर्व विवाह '' का समाचार ज्ञात करके प्रसन्न हैं तथा उसे गर्भवती जानकार राजा के पास भेजना चाहते हैं । आश्रम से राजधानी जाते समय सखियाँ शकुन्तला को बताती हैं  की यदि राजा पहचानने से तुम्हें भूल करे तो उसे नामांकित मुद्रा दिखा देना । राजा शकुन्तला को शापवश नहीं पहचान पाता तो शकुन्तला उसको मुद्रिका दिखाना चाहती है किन्तु वह अँगूठी तो ''शक्रावतार ''में शची तीर्थ के जल को प्रणाम करते समय उसके हाथ से स्खलित हो चुकी थी । कुछ दिन बाद ही वह अँगूठी राजा के पास पहुँचती है ,तब वह सम्पूर्ण घटना का स्मरण करके शकुन्तला की खोज में जाते हैं । अंत में पुनर्मिलन के साथ नाटक समाप्त होता है ।
कालिदास ने अभिज्ञान - शाकुन्तल में महाभारत के ''शकुन्तलोपाख्यान ''के इतिवृत्त को अपनी नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा से सरस एवं गरिमामय बनाकर प्रस्तुत किया है। चतुर्थ अङ्क में उनकी कला चरमोत्कर्ष पर
है -  ''काव्येषु नाटकं रम्यं ,तत्र रम्या शकुन्तला ।
तत्रापि चतुर्थोङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम् । । ''
और -''कालिदासस्य सर्वस्वमभिज्ञानशकुन्तलम् ॥'' 
''अभिज्ञानशाकुन्तल ''संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है । इसके सात अंकों में दुष्यंत शकुन्तला के प्रेम ,वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है । इसका प्रधान रस संभोग(संयोग) श्रृंगार तथा विप्रलम्भ श्रृंगार है । करुण ,वीर ,अद्भुत ,हास्य ,भयानक ,और शान्त ये सहयोगी रस हैं । यह नाटक सुखान्त है इसमें वैदर्भी रीति का मुख्यतः प्रयोग हुआ है । इसके नायक दुष्यंत धीरोदात्त नायक हैं । दुष्यंत के व्यक्तित्व को सजीव बनाकर चित्रित किया है । दुष्यंत बलिष्ठ एवं पराक्रम शाली ,ललित कलाओं का मर्मज्ञ ,प्रकृति प्रेमी एवं कुशल चित्रकार है । उसमें मानवोचित दुर्बलताएं भी हैं ,किन्तु वह पुत्र वत्सल ,कवि ,कलाकोविद एवं कर्तव्य परायण राजा है ।
शकुन्तला निसर्ग कन्या है । पिता कण्व के प्रति उसके हृदय में असीम प्रेम है । कवि ने कण्व को वत्सल पिता एवं सद्गृहस्थ के रूप में चित्रित किया है ।
अभिज्ञानशाकुन्तल में कालिदास ने प्रेम और सौंदर्य का सुन्दर सामंजस्य प्रस्तुत किया है । उन्होंने केवल मानव सौंदर्य का ही वर्णन नहीं किया है ,वरन प्राकृतिक सौंदर्य के चित्रों का भी अत्यंत भव्य एवं मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है ।
महाकवि कालिदास ने अपने नाटकों में तत्कालीन समाज का चित्रण यथास्थान किया है । उस युग के सामाजिक ,सांस्कृतिक , राजनैतिक,धार्मिक एवं पारिवारिक जीवन का यथार्थ चित्रण अभिज्ञानशाकुन्तल में मिलता है ।
कालिदास की लोकप्रियता का कारण उनकी सरल ,परिष्कृत और प्रसाद गुण पूर्ण शैली है कालिदास में कल्पना की ऊँची उड़ान है ,भावों में गम्भीरता है । विचारों में जीवन की घनी अनुभूति है ,भाषा में लोच और प्रांजलता है । उनकी कविता में मादकता है ,घटना संयोजन सुविचारित है । बाह्य एवं अन्तः प्रकृति का  सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है । चरित्र चित्रण में वैयत्तिकता को प्रधानता दी गई है, वर्णनों में अलंकारों की प्रधानता न होकर प्राकृतिक सुषमा की प्रमुखता है । उनकी भाषा में ध्वन्यात्मकता और प्रवाह है । उनका शब्द कोष अगाध है । उनकी उपमाएं बेजोड़ होती हैं इसीलिए उनके विषय में ''उपमा कालिदासस्य''यह कथन सुविश्रुत है । उन्होंने स्वाभाविक रूप से उपमा ,रूपक ,स्वभावोक्ति ,निदर्शना,दीपक ,विभावना ,व्यतिरेक ,अर्थान्तरन्यास ,अनुप्रास ,यमक ,श्लेष ,उत्प्रेक्षा ,आदि अलंकारों का प्रयोग किया है । इसी प्रकार विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग करने में कालिदास सिद्ध हस्त हैं । उनकी रचनाओं में आर्या ,अनुष्टुप ,वंशस्थ ,,वसन्ततिलका ,मालिनी ,मन्दाक्रान्ता ,शिखरिणी ,शार्दूलविक्रीड़ित आदि छन्द पाठकों का मन अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें भाव विभोर करते रहते हैं । कालिदास सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न महाकवि एवं नाटककार हैं । वे साहित्य प्रकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं । उनकी रचनाओं में स्वर्गीय आनन्द ,भौतिक विलास ,दैवी दिव्यता ,मानवीय मनोज्ञता और सात्विक सम्मोहन एक साथ सुलभ होकर निदर्शित है ।
 कालिदास की रचनाओं में सभी नाट्य कला सम्बन्धी विशेषतायें हैं ,तथापि इनका प्रकृति चित्रण अप्रतिम एवं अत्यंत रमणीय है। कालिदास की काव्य कला का विकास ही प्रकृति वर्णन से आरम्भहोताहै।
कालिदास प्रकृति नटी  के कुशल चितेरे हैं । उनका प्रकृति वर्णन सूक्षम और यथार्थ है प्रकृति को जितना महत्त्व पूर्ण स्थान कालिदास के काव्य में मिला है उतना परवर्ती साहित्य में नहीं । नारी सौंदर्य एवं नायिकाओं के अलंकरण के लिए भी वे प्राकृतिक उपादानों का ही ग्रहण करते हैं । जैसे वसंत पुष्पों से अलंकृत पार्वती -
                                     ''अशोकनिर्भत्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णकारम् |
                                       मुक्ताकलापीकृत्सिन्दुवारं वसन्तपुष्पाभरणं वहन्ती ||''(कुमारसम्भवम्३/५३ )
अर्थात अशोक के पुष्प से पद्मराग मणि का तिरस्कार करने वाले ,सोने की कान्ति को ग्रहण करने वाले हार के समान किये गये निर्गुण्डी के पुष्पों वाले ऐसे वसन्त ऋतु के फूल रूप भूषण को धारण करति हुई (पर्वतराज कन्या दिखाई पड़ी । )
प्रकृति के आलम्बन ,उद्दीपन ,मानवीकृत ,उपदेशात्मक  मानव की सहचरी आदि विविध रूप कवि की कुशल लेखनी से मूर्त हो उठे हैं । कालिदास ने अपनी रचनाओं में प्रकृति के दिव्या रूप की भी प्रतिष्ठा की है । अभिज्ञानशाकुंतलम् में तो आरम्भ से अंत तक कोमल एवं सरस प्रकृति का भव्य वर्णन मिलता है । शकुन्तला तो प्रकृति कन्या ही है । वह प्रकृति की उन्मुक्त वातावरण में ही उत्पन्न हुई ,प्रकृति ने ही उसका पालन पोषण किया और उसका श्रृंगार प्रसाधन दिए और उसका अधिकांश जीवन ही प्रकृति की गोद  में ही व्यतीत हुआ । महर्षि कण्व के शब्दों में ''शान्ते करिष्यसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ''उसने अपना अन्तिम जीवन भी प्रकृति की गोद में ही व्यतीत किया |
मेघदूत गीतिकव्य तो प्रकृति काव्य ही है | उनका मेघ एक प्रकृति का ही अंग है ;तथा उसका सारा कार्य व्यापार प्रकृति क्रीड़ा ही है । भारत वर्ष के भव्य प्राकृतिक दृश्य इस गीतिकाव्य में देखने को मिलते हैं । अतः यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि कालिदास मूलतः प्रकृति के ही कवि हैं । 
कवि की सर्वप्रथम रचना ''ऋतुसंहार ''है । इसमें कवि ने विभिन्न ऋतुओं से मानवों पर पड़ने वाले प्रभावों का तथा उनके परिणामों का सुन्दर सरस वर्णन किया है । उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों पर चेतन धर्म का समारोप कर उसका आलंकारिक चित्र प्रस्तुत किया है और कहीं कहीं प्रकृति को शुद्ध आलम्बन रूप में रखकर उसके प्रति अपना अनुराग व्यक्त किया है । कवि ने कामिनियों के उन विचारों और भावों का ही विशेष रूप से वर्णन किया है जो की इसमें प्रकृति के प्रभाव से उत्पन्न हुए हैं । इन कामिनियों के भावों का ही वर्णन करने के लिए ही कवि ने मानो प्रकृति की पृष्ठ भूमि का आश्रय लिया है । 
कालिदास कि प्रसंशा मे कहा गया है -
 ''पुष्पेषु चम्पा ,नगरीषु काञ्ची,
नदीषु गङ्गा ,नृपतौ च रामः |
नारीषु रम्भा .पुरुषेषु विष्णुः ,
काव्येषु माघः ,कवि कालिदासः ||''

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