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रविवार, 16 नवंबर 2014

स्त्री शिक्षा का विकास एवं महत्त्व ( शेष अंश )

स्त्री शिक्षा का विकास एवं महत्त्व ( शेष अंश )
वैदिक काल से लेकर आज तक हमारे लिए शिक्षा का अर्थ वह प्रकाश स्रोत है जो जीवन
के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा मार्गदर्शन करता है । इतिहास बताता है की भारत प्राचीन काल
में वैभवशाली व गौरवमय देशों में रहा है यहाँ की शिक्षा व्यवस्था सभ्यता एवं संस्कृति की
 द्योतक है । इसकी नींव आध्यात्मिकता पर आधारित रही है । कल लोग यहाँ की शिक्षा ,
सभ्यता , तथा संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित होकर आते थे , और आज यह कैसी 
विडम्बना है की हम अपने अस्तित्व को ही खो बैठे हैं । आज हम पहले विदेशी बाद में 
भारतीय होते जा रहे हैं । अपनी शिक्षा व्यवस्था , परिस्थिति , आवश्यकताओं तथा 
सामाजिक दशा की अवहेलना करके बिना विचार विदेशी शिक्षा व्यवस्था से प्रभावित 
होते जा रहे है । आज हमारे देश के छात्र - छात्राएं दूसरे देश में अध्ययन करने को अपना 
सौभाग्य  मानने लगे हैं ,जबकि हमारे यहां प्राचीन समय में विश्व के कोने कोने से छात्र 
अध्ययन करने आते थे ।
स्त्रियों को प्राचीन काल से भी शिक्षा का अधिकार था , परन्तु आज स्थिति बहुत अधिक
संतोषजनक नहीं है । भारतीय साहित्य तथा संस्कृति के इतिहास में स्त्रियों का आध्यात्मिक
स्वरूप विकृत नहीं हुआ है । आज भी स्त्रियां गृहस्वामिनी और अर्द्धांगिनी के रूप में ही मुख्य
रूप से दिखाई देतीं हैं ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों की वैयत्तिक मर्यादा सुरक्षित थी । स्त्रियों
को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही क्षेत्रों में कल्याणकारी रूप में देखा जाता था ।स्त्रियों
की महत्ता को वैदिक साहित्य साहित्य में मुक्त कंठ से वर्णित किया गया है । वैदिक
वाङ्गमय  में लक्ष्मी ,शक्ति ,दुर्गा की श्रेणी में अदिति इन्द्राणी , उषा , इळा ,भारती श्रद्धा
आदि को स्थान दिया गया है तथा ये देवियाँ उनके तत्वों की अधिष्ठात्री देवी कही गयी
हैं । इसमे सर्वशक्तिशाली अदिति की संतान आकाश , माता - पिता और समस्त देवता
हैं ।
वेदों में कहा गया है की ब्रह्मचारिणी स्त्रियों का विवाह विद्वान पुरुष से ही होना चाहिये ,
साथ ही स्त्रियों के वैदुष्यपूर्ण व्यवहार एवं शिक्षा की भी चर्चा है। अथर्ववेद में कुमारियों
के ब्रह्मचर्य  जीवन तथा विद्या प्राप्ति का परिचय मिलता है , जिसके पश्चात ही वे
युवा पति प्राप्त करतीं थीं । वेदों में बहुत सारे मन्त्रों को स्त्री द्वारा ही पढ़वाया गया
है । स्त्रियों का पढ़ना अत्यन्तावश्यक था क्योंकि बिना पढ़े वे अग्निहोत्र नहीं कर
सकतीं थी ।
भारतीय मानस वैदिक काल में या आधुनिक काल में अनेक रूपों में समान है । महात्मा
गाँधी का विचार था कि पारिवारिक गाड़ी के संचालन में स्त्री -पुरुष पहिये के समान हैं ।
अतः पारस्परिक समझ और उत्तरदायित्वों के निर्वाह हेतु दोनों को  शिक्षित होना
चाहिए । एक पहिये के विपरीत स्थिति में रहने के कारण दांपत्य रूपी गाड़ी का
संचालन असुविधा जनक हो जाता है। गाँधीजी स्त्री शिक्षा को अत्यधिक महत्वपूर्ण
मानते थे तथा आरंभ से ही उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा का विधान किया । सर्वप्रथम
शिक्षा माता से ही आरंभ होती थी । मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चा माता
के गर्भ से ही शिक्षा ग्रहण करना आरंभ कर देता है ।
अतः हम समझ सकते हैं कि कन्या का शिक्षित होना कितना आवश्यक है । हम
समाज में एक पुरुष को शिक्षित करके केवल एक व्यक्ति विशेष को करते हैं ,किन्तु
एक स्त्री को शिक्षित करने का अभिप्राय है संपूर्ण परिवार और आने वाली पीढ़ियों को
 शिक्षित करना । अतः आज भारत में स्त्री शिक्षा की बहुत आवश्यकता है ।
परिवार ,समाज और राष्ट्र के निर्माण में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान होने के बाद
भी आधुनिक भारत की असंख्य स्त्रियाँ अशिक्षित हैं उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं है ।
शहरों में कुछ व्यवस्था हुई भी  परन्तु गाँव में दशा बहुत ही विचारणीय है ।
भारतीय आर्थिक ढाँचा कुछ ऐसा है कि एक ही परिवार के कुछ लोग सभी सुख -
सुविधाओं का भोग कर रहा है और वहीं कुछ लोग दाने - दाने को तरस रहे हैं ।
यह असमानता भी स्त्री शिक्षा बहुत बाधक सिद्ध होती  है । आज अपना पेट 
भरने के लिए सभी ग्रामीणों को अपनी बालिकाओं को खेतों में मजदूरी करने 
अथवा कोई और कार्य करने में लगाना पड़ रहा है । अपनी प्राथमिक जरूरतों 
के कारण  परिवार का हर सदस्य मेहनत मजदूरी करने को बाध्य है । सरकार 
भी स्त्री शिक्षा के लिए व्यवस्था कर पाने में असमर्थ है । बालिकाओं की शिक्षा 
के लिए जो प्रयास किये गए है वे प्रशंसनीय है पर पूर्ण नहीं । आज भी स्त्री शिक्षा 
हेतु कई प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन लोगों की मानसिकता स्त्रियों के प्रति 
परिवर्तित नहीं हो रही है जिससे स्त्रियों को अपना अधिकार प्राप्त करने में 
इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है । स्त्रियों पर पारिवारिक 
अत्याचार ,घर से निकलने पर असुरक्षा का  एहसास जैसे तत्वों के कारण 
आज स्त्रियों की स्थिति और भी बिगड़ती जा रही है । 
घर से बाहर कन्या हो ,माता हो या बहन हो ,सभी स्त्रियाँ अपने आप को 
असुरक्षित पाती हैं । आज छोटी - छोटी बच्चियां तक  दुष्कर्म और शोषण 
का शिकार हो रही है ,जबकि वैदिक काल में इतने अमानवीय कृत्य देखने
 को नहीं मिले । आज स्त्रियों की सुरक्षा हेतु प्रयास निरंतर जारी रखने की 
आवश्यकता है । स्त्रियों के सम्मान में जो कमी आई है वह संस्कारों का 
अभाव ही जान पड़ता है । मनुस्मृति में मनु ने कहा है -
'' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । 
यत्रैतास्तु न पुज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥ ''
अर्थात जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ 
स्त्रियों का अनादर होता वहाँ सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं । ऐसी विचारधारा जहाँ 
है वहाँ स्त्रियों का अपमान तथा उनके सत्ता दुराचार असंभव है । 
आज स्त्री की यह स्थिति है की वह कहीं भी जाने में डरती है । वह स्वतंत्रता पूर्वक
कहीं भी नहीं जा सकती ,जबकि वैदिक काल में  स्थिति ऐसी नहीं थी । स्त्रियाँ निर्भीक,
साहसी ,विदुषी तथा ब्रह्मवादिनी होतीं थीं । 
स्त्रियों के निश्चय ,सद्विवेक एवं कार्य कुशलता पर ही उनकी शिक्षा का भविष्य निर्भर 
है। समाज उत्थान के कार्यों में स्त्रियों की सेवा प्राप्त करने के लिए उनका शिक्षित होना 
अत्यावश्यक है । समाज के अंतर्गत अनेको बुराइयाँ जैसे पर्दा प्रथा ,सटी प्रथा ,जादू टोना ,
आदि को दूर करने में एक शिक्षित स्त्री का महत्वपूर्ण योगदान होता है । एक परिवार में 
माता को सर्वप्रथम अध्यापक कहा गया है । जिससे वह बालक को समुचित पथ प्रदर्शन 
करने में समर्थ हो सके । शिक्षा से ही स्त्रियां आत्मनिर्भर एवं स्वतन्त्र बनती हैं ।
भारत की आधी से ज्यादा आबादी निरक्षर है जो शिक्षा के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक 
महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ है । उनकी दृष्टि में शिक्षा का कोई विशेष महत्व नहीं है । यही 
विचारों की संकीर्णता स्त्री शिक्षा के मार्ग में बाधक है । देश का अधिकांश परिवारों में 
विशेषकर गाँव में स्त्रियों का घर से निकलना सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है । 
इस वैचारिक संकीर्णता को दूर करना भी बहुत आवश्यक है ।

शनिवार, 8 नवंबर 2014

स्त्री शिक्षा का विकास एवं महत्त्व

स्त्री शिक्षा का विकास एवं महत्त्व
महात्मा गाँधी के शब्दों में -'' किसी न किसी प्रकार पुरुष युगों से स्त्री पर शासन करता आ रहा
है और इसीलिए स्त्री में निम्न होने की भावना का विकास हो गया है । ''

स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -'' स्त्रियों को सदैव असहायता और दूसरों पर दासवत निर्भरता
 की शिक्षा दी गई है । ''

पुरुष युगों से स्त्री पर शासन करता आ रहा है । पुरुष ने उसे ज्ञान के आलोक से बाहर अज्ञानता
से आवृत्त रखने में ही अपनी इतिश्री समझी है । तभी से स्त्री ,विवशता की जंजीर में जकड़ी हुई
अपनी  शिक्षा की बाह जोह रही है । आज इस जंजीर की कड़ियाँ धीरे - धीरे टूट रही हैं । स्त्री घर
 की चार दीवारी से  निकल रही  है । आज  वह शिक्षित होकर  बाह्य जगत में प्रवेश  कर रही है
तथा पुरुषों से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होड़ ले रही है ।
आज  स्वतंत्र  भारत में स्त्री की सामाजिक  स्थिति में  क्रन्तिकारी  परिवर्तन हो रहा  है । जिन
बंधनों में वह बंधी हुई थी,वे एक - एक करके ढीले होते जा रहे हैं । जिस स्वतंत्रता से उसे वंचित
कर दिया था , वह उसे पुनः प्राप्त हो रही है । स्त्री ने अपने वास्तविक महत्त्व को पहचानना
आरम्भ कर दिया है और वह अपनी गिरी हुई दशा के प्रति सचेत हुई है । इसीलिए आज का
समय स्त्री के जागरण का ,स्त्री के उत्थान का समय बन गया है ।
 स्त्री शिक्षा के बिना भारतीय समाज की संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकती है , क्योंकि स्त्रियाँ
सामाजिक रचना की अभिन्न अंग हैं । यदि स्त्री की उपेक्षा होती है तो पुरे समाज के विकास में
और वृद्धि में अवरोध उत्पन्न हो जाता है ।
यदि  हमारे देश की स्त्रियाँ शिक्षित होंगी तो हमें शिक्षित माताएं मिलेंगी जो कि अपने बच्चों में
ईश्वर के प्रति भय तथा सत्य का मूल्यांकन और आनन्द की अनुभूति के गुण उत्पन्न करेंगी ।
इस प्रकार हमारे देश के लोग न केवल प्रतिभावान हो सकेंगे बल्कि उनका परिवार भी शिक्षित
और सुखी होगा ।
स्त्रियों की शिक्षा को एक स्वस्थ तथा सुखी गृहस्थ जीवन की आवश्यकताओं के अनुकूल होना
चाहिए । उन्हें पतिव्रत पत्नियाँ तथा जागरुक माताएँ बनना चाहिए । इसके लिए भारतीय स्त्रियों
को सिलाई , पाकशास्त्र कला ,गृहकार्य ,बच्चों का पालन पोषण आदि ऐसे विषयों का ज्ञान भी
प्राप्त करना होगा ।
इस प्रकार से शिक्षित स्त्री के सहयोग से ही देश का वास्तविक हित होगा ,क्योंकि शिक्षित तथा
धार्मिक माताओं के घर में ही महान पुरुष तथा विदुषी स्त्रयों का जन्म सम्भव होगा ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता , अथतृतीयोऽध्यायः (३६-४३)

३६-४३ काम के निरोध का विषय |

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||

अर्थ -अर्जुन बोले -हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भांति
किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?||३६||

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ||

अर्थ - श्रीभगवान् बोले - रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है , यह बहुत खाने वाला अर्थात्
भोगों से कभी न अघाने वाला और बडा पापी है , इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ||३७||

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||

अर्थ- जिस प्रकार धूँए से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका
रहता है ,वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है ||३८||

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||

अर्थ -और हे अर्जुन !इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के
द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है ||३९||

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ||

अर्थ -इन्द्रियां ,मन और बुद्धि - ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं | यह काम इन मन ,बुद्धि और 
इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ||४०||

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||

अर्थ - इसलिये हे अर्जुन !तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने 
वाले महान पापी काम को अवश्य ही बल पूर्वक मार डाल ||४१||

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ||

अर्थ - इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ , बलवान और सूक्ष्म कहते हैं ;इन इन्द्रियों से 
पर मन है , मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है ||४२||

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ||

अर्थ -इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म , बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और
बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल ||४३||
             ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
                         योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो
                                    नमः तृतीयोऽध्यायः||३||