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सोमवार, 11 अगस्त 2014

अभिज्ञानशाकुन्तलम्


कालिदास की नाट्यकला के प्रशन्सक का कथन है कि ,काव्य मे नाटक रमणीय होता है और
नाटको मे "अभिज्ञानशाकुन्तलम्",उसमे भी चतुर्थ अङ्क ,और उसमे भी श्लोक
चतुष्ट्य अत्यधिक रम्य है -

"काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला〡
तत्रापि चतुर्थोअङ्कस्तत्र श्लोक चतुष्ट्यम् ⅼ ⅼ"


चतुर्थ अङ्क को शाकुन्तलम् मे सर्वोत्तम मानने का मुख्य कारण यही है कि
इसमे करुण भाव का बडा ही विशद् एवं मार्मिक चित्रण हुआ है ⅼ

प्रथम श्लोक मे
पुत्री के विवाह के बाद विदाई पर उसके माता-पिता के ह्रदय मे जो
वात्सल्य उमडता है,उसका कवि ने बडा ही स्वाभाविक तथा आकर्षक चित्रण किया है
〡गृहस्थ लोग तो संसारी जीव होने के कारण माया मोह मे लिप्त रहते हैं〡

"यास्यत्यद्य शकुन्तलेति ह्रदयं संसपृष्टमुत्कण्ठया,
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडंदर्शनम् 〡
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्योकसः,
पीड्यन्ते गृहिण: कथं न तनयाविश्लेषदु:खैनवैः ⅼⅼ

 
अर्थात् आज शकुन्तला चली जायेगी,अतः ह्रदय दुःख से भर गया है ,कण्ठ
अश्रुप्रवाह रोकने के कारण गद्गद् हो गया है ,दृष्टि निश्चेष्ट हो गई है
〡मुझ वनवासी को शकुन्तला के प्रति स्नेह के कारण यदि ऐसी यह विकलता है तो
गृहस्थ लोग अपनी पुत्री के वियोग के दुःखो से कितने ही दुःखित होते होगे
,अर्थात् वे तो अत्यन्त ही दुःखी होते होगे 〡
{अभिज्ञानशाकुन्तलम्{4/6}

 

दुसरे मुख्य श्लोक में कालिदास की करुण - वेदना देखिये.....
विदाई के अवसर पर पिता का अपनी पुत्री को उपदेश तथा जामाता से निवेदन भी दृष्टव्य है⎹इस उपदेश तथा निवेदन मे भी पितृ - ह्रदय कि करुण वेदना ही छिपी ⎸पुत्री के सौभाग्य की कामना करते हुए ऋषि कण्व अपनी पुत्री को सदुपदेश देते हुए कहते हैं _


"सुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने ,
भर्तुर्वि प्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीप गमः ⎸
भूयिष्ठमं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्व नुत्सेकिनी ,
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ||" 


अर्थात् तुम सास -ससुर आदि की सेवा करना ,सपत्नियों के साथ प्रिय सखियों जैसा व्यवहार करना ,पति के द्वारा अपमानित होने पर भी रोष से उनके विरुद्ध आचरण मत करना ,सेवकों के प्रति अत्यन्त उदार रहना और अपने भाग्य पर गर्व मत करना | इस प्रकार का आचरण करने वाली स्त्रियां ही गृहिणी नाम को सार्थक करती हैं,और इसके विपरीत आचरण करने वाली स्त्रियां तो कुल के लिये पीडादायकहि होती हैं |
[अभिज्ञानशाकुन्तलम्4/18]

 

तीसरे श्लोक में कालिदास का प्रकृति चित्रण देखिये _

"पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ,
नादत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् |
आद्ये वः कुसुमुप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः ,
सेयं याति शकुन्तला पति-गृहं सर्वे रनुज्ञा
यताम् ||

 
अर्थात् शकुन्तला प्रकृति पुत्री है |प्रकृति पेल्वा होने के कारण आश्रम के
लता -वृक्षों तथा पशु -पक्षियों के साथ उसका सहॊदर स्नेह् है |वह पहले
वृक्षों को जल पिलाकर जल पीती थी ,अलंकारप्रिया होने पर भी स्नेह के कारण
वह उनका एक पत्ता भी नहीं तोडती थी तथा उनके प्रथमपुष्पोद्भव के समय वह पुत्रोत्सव मनाती

 थी |{अभिज्ञानशाकुन्तलम् 4/9}

 

चौथे मुख्य श्लोक 
एक शार्ङ्गरव -के माध्यम से दुष्यन्त के प्रति अपना भाव -भीना संदेश
देते हुए कहते हैं _


"अस्मान् साधु विचिन्त्य संयम धनानुच्चैः कुलं चात्मन -
स्त्वय्यस्याः कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम् |
सामान्य प्रतिपत्तिपूर्वक
मियं दारेषु दृश्या त्वया ,
भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः ||

 
अर्थात् हम तपस्वियों की निश्छलता ,अपने उच्चकुल तथा बिना हमारी अनुमति के
इसके द्वारा तुमसे किये गये प्रेम का अच्छी तरह विचार करके तुम्हें इसके
साथ अपनी अन्य पत्नियों के समान ही व्यवहार करना चाहिये ;इसके बाद जो कुछ
भी हो ;वह उसके भाग्य की बात होगी, अतः उस विषय में हमें कोई आपत्ति भी
नहीं होगी |


   
 

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