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रविवार, 31 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथप्रथमोऽध्यायः (२८-४७)

२८-४७ मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता ,स्नेह,और शोक युक्त वचन |

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ||
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |

अर्थ - उन उपस्थित संपूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्ती पुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा
से युक्त होकर शोक करते हुए यह  वचन बोले || २७वें का उत्तरार्ध २८वें का पूर्वार्ध ||

अर्जुन उवाच-
दृष्ट्वेमं  स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ||
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ||

अर्थ  -अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध क्षेत्रके अभिलाषी इस
 स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा
 जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप एवं रोमाञ्च हो रहा है || २८वें का उत्तरार्ध और२९||

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ||

अर्थ  - हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा
मन भ्रमित-सी हो रहा है ;इसलिये मैं खडा रहने को भी समर्थ नहीं हूं ||३०||

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवः |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि  हत्वा स्वजनमाहवे ||

अर्थ - हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देखा रहा हूं तथा युद्ध में
स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता ||३१||

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ||

अर्थ - हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूं और न राज्य तथा सुखों को ही |
हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और
 ऐसे जीवन से भी क्या लाभ है ?||३२||

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ||

अर्थ- हमें जिनके लिये राज्य,भोग और सुखादि अभीष्ट हैं ,वे ही ये सब धन 
और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खडे. हैं ||३३||

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः |
मातुलाः श्वषुराःपौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ||

अर्थ  - गुरुजन,ताऊ-चाचे लड.के और उसी प्रकार दादे ,मामे ,ससुर ,पौत्र 
साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ||३४||

एतान्नहन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्य राज्यस्य हेतोः किं नु मही कृते ||

अर्थ  - हे मधुसूदन ! मुझे मारने  पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये 
भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता ;फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या ?||३५||

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन|
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ||

अर्थ-हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों
 को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ||३६||

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम  माधव ||

अर्थ-अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धार्तराष्ट्र के पुत्रों को मारने  के लिये हम योग्य
नहीं हैं ;क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?||३७||

यद्द्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ||
कथं न ज्ञेयंस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ||

अर्थ- यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और
मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते ,तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से
उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं
विचार करना चाहिये ?||३८-३९||

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अर्थ-कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं ,धर्म के नाश हो जाने
पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ||४०||

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टाषु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ||

अर्थ -हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यन्त दूषित हो जाती हैं
और हे वार्ष्णेय !स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसङ्कर  उत्पन्न होता है ||४१||
 सङ्करो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिन्डोदकक्रियाः ||
अर्थ-वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है |लुप्त
हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण  से वञ्चित इनके
पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ||४२||

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः |
उत्साद्द्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ||

अर्थ-इन वर्ण संकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल -धर्म
 और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ||४३||

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||

अर्थ- हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है,ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित
काल तक नरक में वास होता है,ऐसा हम सुनते आये हैं ||४४||

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ||

अर्थ - हा ! शोक !हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं ,
जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने  के लिये उद्द्यत हो गये हैं ||४५||

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं  शस्त्रपाणयः |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ||

अर्थ- यदि मुझ शस्त्र रहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये
हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक
कल्याणकारक  होगा ||४६||

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः||

अर्थ-संजय बोले -रण भूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार
कहकर ,बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ||४७||

                    ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
                               योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो
                                              नाम प्रथमोऽध्यायः ||१||

श्रीमद्भगवद्गीत -अथ प्रथमोऽध्यायः ( २०-२७ )


२०-२७  अर्जुन द्वारा सेना का पारीक्षण प्रसंग |

 अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्द्यम्य पाण्डवः ||
ह्रिषीकेशं  तदा वाक्यमिदमाह   महीपते |
अर्जुन उवाच 
सेनयोरुभयोर्मध्ये  रथं स्थापय मेऽच्युत||

अर्थ -हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बांधकर डटे हुए
धृतराष्ट्र-संबन्धियों को देखकर,उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष
उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा -हे अच्युत ! मेरे रथ
को दोनों सेनाओं के बीच खडा कीजिये ||२०-२१||

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्द्यमे ||

अर्थ-और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी
 योद्धाओं  को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन
के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक उसे खडा रखिये ||२२||

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ||

अर्थ - दुर्बुद्धि दुर्योधन का हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में
आये हैं ,इन युद्ध करने वालों को मै देखूंगा ||२३||

सञ्जय उवाच -
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ||
भीष्मद्रोणाप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ||

अर्थ - संजय बोले - हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज
श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा
संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खडा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ!
युद्ध के लिये जूते हुए इन कौरवों को देख ||२४-२५ ||

तत्रा पश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||
श्वशुरान्सुह्रिदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |

अर्थ -इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनो ही सेनाओं में स्थित ताऊ -चाचों को,
दादों -परदादों को,गुरुओं को,मामाओं को,भाइयों को,पुत्रों को,पौत्रों को,तथा मित्रों
को,ससुरों को,और सुहृदों को भी देखा ||२६और २७वें का पूर्वार्ध ||

शनिवार, 30 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथ प्रथमोऽध्यायः (१२-१९ )

१२-१९ दोनों सेनाओं की शङ्ख ध्वनि का कथन | 
तस्य सञ्जनयन्  हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्द्योच्चैः शङ्खंदध्मौ प्रतापवान् ||
अर्थ  -कौरवों में वृद्ध बडे. प्रतापी पितामह भीष्म ने उस
दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न  हुएउच्च स्वर से सिंह की दहाड. के
समान गरजकर शंख बजाया ||१२||

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः |
 सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ||
इसके पश्चात् शङ्ख और नगारे तथा ढोल मृदङ्ग और
नरसिङ्घे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे |उनका वह शब्द
 बडा भयंकर हुआ ||१३||

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ||

अर्थ -इसके अनन्तर सफेद घोडों से युक्त उत्तम रथ में बैठे
 हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी शङ्ख बजाये ||१४||

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ||

श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक ,अर्जुन ने देवदत्त नामक और
भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशन्ख बजाया ||१५||

  अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ||

अर्थ -कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा
 सहदेव ने सुघोष और मनिपुष्पक नामक शङ्ख बजाय ||१६||

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी  महारथः |
धृष्टद्द्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ||
दुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवी |
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् -पृथक् ||

श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्द्युम्न
तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि ,राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पांचों
 पुत्र और बडी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु - इन सभी ने ,हे राजन् !
सब ओर् से अलग -अलग शंख बजाये ||१७-१८||

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ||

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथिवी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों
 के अर्थात् आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिये ||१९||

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अर्जुनविषाद ,अथप्रथमोऽध्यायः (१-११)

श्रीमद्भगवद्गीता

 







अथप्रथमोऽध्यायः
 १-११  दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणनाऔर सामर्थ्य का कथन |

धृतराष्ट्रउवाच  -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे  समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किम कुर्वत सञ्जय ||

 अर्थ  - धृतराष्ट्र बोले -हे संजय !धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित ,युद्ध की
 इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या  किया? ||१||

सञ्जय उवाच-
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ||

 अर्थ  - संजय बोले-उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की
 सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ||२||

 पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीम् चमूम् |
 व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||

 अर्थ  - हे आचार्य-आपके बुद्धिमान्  शिष्य द्रुपदपुत्र ध्रुष्टद्द्युम्न द्वारा
व्यूहाकार खङी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस भारी सेना को देखिये ||३||

अत्र शूर महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ||

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ||

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व  एव महारथाः ||

 अर्थ  - इस सेना में बङे-बङे धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद , धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज ,पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य ,पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा,सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र-ये सभी महारथी हैं ||४-५-६||

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संञ्ज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ||

 अर्थ  - हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिये |आपकी जनकारी के लिये मेरी सेना के जो - जो सेनापति हैं ,उनको बतलाता हूं ||७||

भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ||

 अर्थ  - आप द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी
कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा,विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा ||८||

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः |
नाना शस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ||

 अर्थ  - और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत - से शूरवीर अनेक
प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब- युद्ध में चतुर हैं ||९||

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ||

 अर्थ  - भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और
 भीम द्वारा रक्षिता इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है ||१०||

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ||

 अर्थ  - इसलिये सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग
सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें ||११||

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

श्रीगणेश चालीसा तथा श्रीगणेशजी की आरती

श्री गणेशाय नमः|

ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ |
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ||

ॐ गं गणपतये नमो  नमः |

ॐ एक दन्ताय विद्महे वक्रतुन्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् |
ॐ सिद्धि बुद्धिसहिताय ,श्रीमन्महागणाधिपतये नमः |                                  
गजाननं भूतगणादिसेवितम् ,
कपित्थ-जम्बू -फल-चारु -भक्षणम् |
उमासुतं शोक - विनाश कारकम् ,
नमामि विघ्नेश्वर-पाद-पङ्कजम् ||
 गणपति के निम्नलिखित बारह नामों का पाठ प्रतिदिन तीन बार करने से शुभ कार्य में कोई विघ्न नहीं आता -
नारद उवाच -
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकं|
 भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुःकामार्थ सिद्धये ||
प्रथमं वक्रतुण्डं च,एकदन्तं द्वितीयकम् |
तृतीयं कृष्ण पिंगाक्षम् ,गजवक्त्रं चतुर्थकम् ||
 लंबोदरं पंचमं च,षष्ठं विकटमेव च |
सप्तमं विघ्नराजं च धूमवर्णं तथाष्टकं ||
नवमं भालचन्द्रं च ,दशमं तु विनायकम् |
एकादशं गणपतिम् ,द्वादशं तु गजाननम् ||
द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः |
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम् ||

श्रीगणेश चालीसा
दोहा -एकदन्त शुभ गजवदन ,विघ्न विनाशक नाम |
श्रीगणेश सिद्धि सदन ,गणनायक सुखधाम|  
मङ्गलमूर्ति महान् श्री ,ऋद्धि-सिद्धि दातार |
 सब देवान में आपको,प्रथम पूज्य अधिकार ||
चौपाई -वक्रतुण्ड श्रीसिद्धि विनायक |जय गणेश सुख सम्पत्ति  दायक||
गिरिजानन्दन,सब गुण सागर |भक्तजनों के भाग्य उजागर ||
श्रीगणेश गणपति सुखदाता |संपत्ति , सुत सौभाग्य प्रदाता ||
राम नाम में दृढ विश्वासा |श्रीमन् नारायण प्रिय दासा ||
 मोदक प्रिय मुषक है वाहन |स्मरण मात्र सब विघ्न नशावन ||
लम्बोदर पीताम्बर धारी |भाल त्रिपुण्ड्र सुशोभित भारी||
मुक्ता-पुष्पमाल गल शोभित |महाकाय भक्तन मन मोहित ||
सुखकर्ता ,दुःखहर्ता देवा|सदा करें संतन जन सेवा |
शरणागत रक्षक गणनायक |भक्तजनों के सदा सहायक ||
शकल शास्त्र सब विद्या ज्ञाता धर्म प्रवक्ता जग विख्याता ||
'महाभारत 'श्रीव्यास बनाया |तब लेखन हित तुम्हें बुलाया ||
शुभ कार्यों में सब नर नारी| प्रथम वन्दना करें तुम्हारी ||
मिट जातीं बाधायें सारी |तुम हो सकल सिद्धि अधिकारी ||
श्रीगणेश के जो गुण गाते |वे जन सकल पदारथ पाते ||
जय गणेश-जय गणपति देवा |तीन लोक करते तब सेवा ||
मास भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी |श्री गणनायक प्रकट जयन्ती ||
श्रद्धा से सब भक्त मनाते |दिव्य चरित महिमा यश गाते ||
श्री गणेश निज भक्त सहायक|विघ्न विनाशक मङ्गल दायक ||
रणथम्भोर दुर्ग गणनायक |महाराष्ट्र के अष्ट विनायक ||
वेद-पुराण-शास्त्र यश गावे |श्रीगणेश सब प्रथम मानावे ||
विघ्नेश्वर श्री सुरप्रिय स्वामी |भक्त करें जय गान स्मरामि ||
सर्वाभीष्ट सिद्धिफल दायक |मोदक प्रिय गणपति गणनायक ||
भालचन्द्र गजमुख शुभकारी|पहले पूजा होत तुम्हारी ||
भक्तजनों को  शुभ वरदायक|श्री गणेश जय वरद विनायक ||
श्री गणेश महिमा अति भारी |इससे परिचित सब नर-नारी ||
गणपति की महिमा सब गाते |ऋद्धि-सिद्धि यश वैभव पाते ||
संकट में जो गणपति ध्यावे |उनके सर्व कष्ट कट  जावे ||
ऋद्धि-सिद्धि बुद्धि बल दायक |सदा सर्वदा विजय प्रदायक ||
वृन्दावन के सिद्ध विनायक |श्रीगणेश ,गणपति गणनायक ||
विघ्न विनाशक,नाम तुम्हारा |करो सिद्ध सब कार्य हमारा ||
सब पर कृपा सदा प्रभु करना |दुःख दारिद्र्य शोक सब हरना ||
श्री मङ्गल विग्रह सुखकारी विनय करो स्वीकार हमारी ||
पत्र पुष्प फल जल लेकर मै |पूजा करें सदा हम घर में ||
जो यह  पठन करें सौ बारा | उन पर गणपति कृपा अपारा ||
एक पाठ भी जो नित करते |उनकी सब विपदायें हरते ||
रोग शोक बन्धन कट  जाते |सुख संपत्ति संतति यश पाते ||
शुभ मङ्गल सुन्दर फल पावे |'श्रीगणेश' चालीसा गावे ||
सफल गजानन करें कामना |भक्त 'गदाधर' रचित प्रार्थना ||
दोहा-श्री गणेश गणपति प्रभो !गणनायक गणराज |
करो सफल मम कामना ,विघ्नेश्वर महाराज ||
श्री गणेशजी की आरती
जय-गणेश , जय-गणेश , जय-गणेश देवा |
माता जाकी पार्वती ,पिता महादेवा ||जय गणेश ..........
पान चढे ,फूल चढे ,और चढे मेवा |
लड्डुन का भोग लागे संत करे सेवा ||जय गणेश ..........
एकदन्त दयावन्त चारभुजा धारी |
मस्तक सिन्दूर सोहै मुसे की सवारी ||जय गणेश ........
अन्धान को आंख देत ,कोढियन को काया |
बांझन को पुत्र देत ,निर्धन को माया ||जय गणेश........

सूर्य श्याम शरण आये सफल कीजै सेवा ||जय गणेश ..... 
दीनन की लाज राखो बन्धु सुतवारी |
कामना को पूर्ण करो जग बलिहारी ||जय गणेश .......
बोलो गणेश महाराज की जय ||

श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

श्रीगीताजी की महिमा
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वास्तव में श्रीमद्भागवद्गीता का महात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है ;क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है |इसमें संपूर्ण वेदों का सार सार संग्रह किया गया है |इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है लि थोडा सा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है ;परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता |प्रतिदिन नये -नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं ,इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा- भक्ति सहितविचार करने से इसके पद-पद में परम रहस्य  भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है |भगवान् के गुण ,प्रभाव और मर्म का वर्णन जिस प्रकार इस गीता शास्त्र में किया गया है ,वैसा अन्य ग्रन्थों में मिलना कठिन है ;क्योंकि प्रायः ग्रन्थों में कुछ ना कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है |भगवान् ने ''श्रीमद्भगवद्गीता''रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है श्रीवेदव्यासजी ने महाभारत में गीताजी का वर्णन करने के उपरान्त कहा है-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः | 
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृताः ||
 'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात्   श्रीगीताजी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्तः करण  में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है ;(फिर ) अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ?' स्वयं श्रीभगवान् ने इसके महात्म्य का वर्णन किया है 
(अ .१ ८ श्लोक ,६८ से ७१ तक ) | 
इस गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है ,चाहे वह किसी भी वर्ण ,आश्रम में स्थित हो ;परन्तु भगवान् में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये ;क्योंकि भगवान् ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के
लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि ,स्त्री ,वैश्य,शूद्र और पाप योनि भी मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं (अ. ९ श्लोक ३२ );अपने - अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं (अ. १८ श्लोक ४६ )-इन सब पर विचार करने से यही ज्ञात होता है की परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार होता है । परन्तु उक्त विषय के मर्म को न समझने के कारण बहुत से मनुष्य ,जिन्होनें श्रीगीता का नाममात्र ही सुना है ,कहा दिया करते हैं की गीता तो केवल सन्यासियों के लिए ही है ;वे अपने बालकों को भी इसी भय से श्रीगीताजी का अभ्यास नहीं कराते की गीता के ज्ञान से बालक घर छोड़कर कदाचित संन्यासी न हो
 जाये ;किन्तु उनको विचार करना चाहिए कि मोह के कारण क्षात्रधर्म से विमुख  होकर भिक्षा के अन्न से निर्वाह करने के लिए तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया ,उस गीता शास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है ।अतएव कल्याण
की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है की मोहा का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकों को अर्थ और भाव सहित श्रीगीताजी का अध्ययन कराएं एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन   करते हुए भगवान  आज्ञानुसार साधना करने में तत्पर हो जाएं ;क्योंकि  अतिदुर्लभ  मनुष्य -शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दुःखमूलक  क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है | 

श्रीगीताजी का प्रधान विषय
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श्री गीताजी में भगवान ने अपनी प्राप्ति के लिये मुख्य दो मार्ग बतलाये हैं --एक साङ्ख्य योग ,दूसरा कर्मयोग -उनमें
  1. संपूर्ण पदार्थ मृग तृष्णा के जल की भांति अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश मायामय होने से माया के कार्यरूप संपूर्ण गुण ही गुणों में बर्तते हैं ,ऐसे समझकर मन,इन्द्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना (अ.५ श्लोक ८-९) तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव के सिवाय अन्य किसी के भी होने का भाव न रहना ,यह  तो साङ्ख्य योग का साधन है तथा
  2. सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि -असिद्धि में समत्व भाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा त्याग कर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवान् के लिये ही केवल सब कर्मों का आचरण करना (अ.२ श्लोक ४८,अ.५ श्लोक १०) तथा श्रद्धा भक्ति पूर्वक मन ,वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान् के शरण होकर नाम गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करना (अ.६ शलोका४७),यह कर्मयोग का साधन है |उक्त दोनों साधनों का परिणाम एक होने के कारण वे वास्तव में अभिन्न माने गये हैं (अ.५ श्लोक ४-५) |परन्तु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों का भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न - भिन्न बतलाये गये हैं (अ.३ श्लोक ३)| इसलिये एक पुरुष दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं चल सकता ,जैसे श्रीगङ्गाजी पर जाने के लिये दो मार्ग होते हुये भी एक मनुष्य दोनों मार्गों द्वारा एक काल में नहीं जा सकता | उक्त साधनों में कर्मयोग का साधन संन्यास आश्रम में नहीं बन सकता ;क्योंकि सन्यास आश्रम में कर्मों का स्वरूप से भी त्याग कहा गया है और सान्ख्ययोग का साधन सभी आश्रमों में बन सकता है |यदि कहो कि सान्ख्ययोग को भगवान् ने सन्यास के नाम से कहा है ,इसलिये उसका संन्यास आश्रम में ही अधिकार है ,गृहस्थ में नहीं ,तो यह कहना ठीक नहीं है ;क्योंकि दूसरे अध्याय में श्लोक ११से ३०तक जो सान्ख्यनिष्ठा का उपदेश किया गया है ,उसके अनुसार भी भगवान् ने जगह - जगह अर्जुन को युद्ध करने की योग्यता दिखाई है | यदि गृहस्थ में साङ्ख्य योग का अधिकार ही नहीं होता तो भगवान् का इस प्रकार कहना कैसे बन सकता ? हां , इतनी विशेषता अवश्य है कि साङ्ख्यमार्ग का अधिकारी देहाभिमान से रहित होना चाहिये ;क्योंकि जब तक शरीर में अहं भाव रहता है तब तक सान्ख्ययोग का साधन भली प्रकार समझ में नहीं आता | इसी से भगवान् ने साङ्ख्ययोग को कठिन बतलाया है (अ.५ श्लोक ६) तथा (कर्मयोग ) साधन में सुगम होने के कारण अर्जुन के प्रति जगह -जगह  कहा है कि तू निरन्तर मेरा चिन्तन करता हुआ कर्मयोग का आचरण कर |
गीता  - महात्म्य

जो मनुष्य शुद्ध चित्त होकर प्रेम पूर्वक इस पवित्र गीता शास्त्र का पाठ  करता है ,वह भय और शोक आदि से
 रहित होकर विष्णु धाम को प्राप्त कर लेता है ||१||

 जो मनुष्य सदा गीता का पाठ करने वाला है तथा प्राणायाम में तत्पर रहता है उसके इस जन्म और पूर्व जन्म में किये हुए समस्त पाप निः संदेह ही नष्ट हो जाते हैं || २||

जल में प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्यों के केवल शारीरिक मल का नाश करता है ,परन्तु गीता ज्ञान रूप जल में एक बार भी किया हुआ स्नान संसार मल को नष्ट करने वाला है ||३||

जो साक्षात् कमलनाभ भगवान् विष्णु के मुखकमल से प्रकट हुई है ,उस गीता का ही भली भांति गान (अर्थ सहित स्वाध्याय ) करना चाहिये , अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ||४||

जो महाभारत का अमृतोपम सार है तथा जो भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है ,उस गीतारूप गङ्गा जल को पी लेने पर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना पड.ता ||५||

संपूर्ण उपनिषदें गौ के समान हैं , गोपालनन्दन श्री कृष्ण दुहने वाले हैं ,अर्जुन बछङा  है तथा महान गीतामृत ही उस गौ का दुग्ध है और शुद्ध बुद्धिवाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है || ६||  

देवकीनन्दन श्रीकृष्ण का कहा हुआ गीताशास्त्र ही एकमात्र उत्तम शास्त्र है ,भगवान् देवकी नन्दन ही एकमात्र महान् देवता हैं ,उनके नाम ही एकमात्र मन्त्र हैं और उन भगवान् की सेवा ही एकमात्र कर्तव्य कर्म है ||७||

सोमवार, 25 अगस्त 2014

मनु स्मृति में जीव हत्या एवं मांस भक्षण

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया |
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ||
यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणीनां न चिकीर्षति |
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते || (मनुस्मृति ५.२३ )

अर्थात् शास्त्रों में लिखा है कि पशुओं  की या जीवों की हत्या करने वाला
पापी होता है तथा उसे इसका फल अवश्य ही मिलता है |जो व्यक्ति अपने सुख की
इच्छा से अहिंसक जीवों को मारता है ,वह इस जीवन में तथा जन्मान्तर में कहीं
 भी सुख नहीं पाता और जो जीवों को बांधने - मारने या क्लेश देने की इच्छा
नहीं करता वह जीवों का हित चाहने वाला अत्यन्त सुख पाता है | अर्थात जीवों
की हिंसा न करने वाला ,अच्छे फल प्राप्त करता है तथा जीवों की हिंसा केवल
अपने हित के लिये करने वाला व्यक्ति ,सदा ही दुःख भोगता है |
 यद्धयायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च |
तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किंचन ||
नाकृत्वा प्राणीनां हिंसां मांस मुत्पद्यते क्वचित् |
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ||( ५.२४)
अर्थात् ऋषि बताते हैं कि मांस खाना कोई अच्छा गुण नहीं  होता ,अतः
ब्राह्मण को मांस नहीं खाना चाहिये |वह ब्राह्मण तो बिल्कुल मांस न खाये
,जो कि वेदों का अध्ययन जानता हो |ऋषि कहते हैं कि किसी जीव को दुःख नहीं
देता ,वह जिस धर्म को भी मन से चाहता है ,जो कर्म करता है ,जिस पदार्थ को
चाहता है वह उसे अनायास ही प्राप्त होता है |जीवों की हिंसा किये बिना मांस
 उत्पन्न नहीं हो सकता |पशुओं का वध करने वाला कभी स्वर्ग को प्राप्त नहीं
करता ,अतः व्यक्ति को मांस खाना ही छोड. देना चाहिये |अर्थात मांस न खाने
वाला व्यक्ति कभी भी पशु की हिंसा नहीं करेगा ,अतः जो व्यक्ति पशुओं को
नुकसान नहीं पहुँचाता ,वह जीवन में सभी सुख भोगता है |
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् |
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् |
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् |
सलोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते || ( ५.२५)              
अर्थात् ऋषि कहते हैं कि मांस न खाने वाला व्यक्ति सदा ही सुख भोगता है अतः
 व्यक्ति को मांस की उत्पत्ति को जानकर तथा जीवों के वध बन्धन को अच्छी तरह
 समझ कर सब प्रकार का मांस - भक्षण त्याग देना चाहिये |जो व्यक्ति पशु
हिंसा को छोड.कर ,पिशाच की तरह मांस नहीं खाता वह बहुत ही मधुर मन का
व्यक्ति होता है तथा संसार में सभी का प्रिय होता है |अच्छे कर्मों के कारण
 ऐसे व्यक्ति को कोई भी रोग नहीं होता |
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी |
संसकर्ता  चोपहर्ता च खादकश्चेतिघातकाः ||
स्वमासं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति |
 अनभ्यर्च्य पितृन्देवांस्ततोऽन्यो  नास्त्यपुण्यकृत || (५.२६)
ऋषि बताते हैं कि किसी भी प्राणी  की हत्या सबसे बड़ा पाप है |जो यह पाप करता है उसे इसका फल अवश्य ही मिलता है |जो व्यक्ति पशु या जीव की हत्या या वध की आज्ञा देता है ,तथा उसका खण्ड खण्ड करने वाला ,उसे मारणे वाला उसे मारकर बेचने वाला ,उसे खरीदने वाला ,उसे पकाने वाला ,उसे परोसने वाला उसे खाने वाला -ये सभी व्यक्ति घातक माने जाते हैं |जो व्यक्ति देवता और पितरों का पूजन किये बिना ही दूसरे जीवों कसा मांस खाते हैं ,तथा स्वयं अपनी सेहत बनाते हैं उससे बढ़ कर पापी दूसरा नहीम् होता है ,अतः पशुओं को मारणे की आज्ञा देने वाले से लेकर उसे पकाकर खाने वाले तक सभी व्यक्ति पापी होते हैं ,वे सभी लोग पशु हिंसा के पाप में शामिल होते हैं |
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः |
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् |
फलमूलाशनर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः |
न तत्फलवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ||  ( ५.२७ )
ऋषियों के अनुसार ,वह व्यक्ति जो मांस बिल्कुल भी नहीं खाता और दूसरा वह जो
 प्रत्येक सौ वर्ष तक अश्वमेघ यज्ञ करता है ,यह  दोनों ही बराबर समझे जाते
हैं ,दोनों का ही पुण्यफल बराबर होता है |फल -फूल और मुनियों के हविष्यान्न
 खाने से वह फल प्राप्त नहीं होता है ,जो केवल मांस छोड. देने से होता है
,अतः मांस न खाने वाला व्यक्ति बहुत ही पुण्य प्राप्त करता है |
मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् |
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः||
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने |
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ||  ( ५.२८ )
ऋषियों के अनुसार जो व्यक्ति मांस खाता है ,उसे इसका फल अवश्य मिलता है |महान पण्डित कहते हैं कि जो व्यक्ति जिसका मांस खाता है ,वह परलोक में उस व्यक्ति को अवश्य ही खायेगा ,यही मांस का मांसत्व होता है | ऋषि कहते हैं कि मांस खाने ,मद्य पीने ,और स्त्री-प्रसङ्ग करने में दोष नहीं है क्योंकि प्राणियों की प्रवृत्ति ही ऎसी होती है , परन्तु उससे निवृत्त होना महाफलदायी होता है |अतः इनमें कोई पाप नहीं है ,परन्तु नियमों के विरुद्ध जाकर इन्हें करना पाप है |

रविवार, 17 अगस्त 2014

श्री कृष्णजन्म स्तुति

    श्री कृष्णावतार प्रार्थना
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    दोहा - सुर समूह बिनती करि पहुंचे निज निज धाम |
    जग निवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक विश्राम ||

अर्थात् देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक जा पहुंचे | समस्त लोकों को शान्ति देने वाले जगदाधार प्रभु प्रकट हुए |


छन्द -भये प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी |
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ||
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी |
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ||
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि विधि करौं अनंता |
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ||
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावंहि श्रुति संता |
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयंहु प्रकट श्रीकंता ||
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै |
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै || 
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै |
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ||
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा |
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ||
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा |
यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ||
दोहा -बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार |
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार || 

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

श्री हनुमान की उपासना कब करनी चाहिये ?

मानस -शङ्का - समाधान 
 
श्री हनुमान की उपासना कब करनी चाहिये ?
शङ्का --सर्वसाधारण और अधिकतर महात्माओं के मुखारविन्द से सुनने में आता हैकी 'सवा पहर दिन चढ जाने से पहले श्री हनुमानजी का नाम जप तथा हनुमानचालीसा का पाठ नहीं करना चाहिये |'क्या यह बात यथार्थ है ?
समाधान --आज तक इस दास को न तो किसी ग्रन्थ में एसा कहीं प्रमाण मिला है ,न अभी तक किसी महात्मा के ही मुखारविन्दसे सुनने को मिला है कि उपासक को किसी उपास्यदेव के स्त्रोतों का पाठ या उसके नाम का जप इत्यादि प्रातः काल सवापहर तक न कर ,उसके बाद करनी चाहिये | बल्कि हर जगह इसी बात का प्रमाण मिलता है कि सदा तथा निरन्तर तैलधारावत् अजस्त्र ,अखण्ड भजन -स्मरण करना चाहिये| यथा --

'रसना निसि बासर राम रटौ !'(कवित्त -रामायण )
''सदा राम जपु ,राम जपु|'
'जपहि नाम रघुनाथ को चरचा दूसरी न चालु |'
'तुलसी तू मेरे कहे रट राम नाम दिन राति |' ( विनय -पत्रिका )
इसी प्रकार श्री हनुमान् के सम्बन्ध में भी सदा - सर्वदा भजन करने का ही प्रमाण मिलता है |यथा --
मर्कटाधीश ,मृगराजविक्रम ,मुद-मङ्गलमय ,कपाली |
+ + + + + +
सिद्ध -सुर वृन्द -योगीन्द्र -सेवित सदा ,
दास तुलसी प्रणत भय तमारी || (विनय पत्रिका पद २६)
पुनः ---
मङ्गलागार ,संसारभारा पहर वानराकारविग्रह पुरारी |
  +              +              +               +                +
राम संभ्राज सोभा -सहित सर्वदा,
तुलसिमानस -रामपुर -बिहारी |(विनय पत्रिका पद २७)
कदाचित् किसी को हनुमान के इस वचन का ध्यान आ गया हो कि --
'प्रात लेइ जो नाम हमारा |तेहि दिन ताहि न मिलै आहारा |'
परन्तु इसका भावार्थ लेना चहिये |यहाँ 'हमारा ' शब्द का सम्बन्ध ऊपर की चौपाई के कपिकुल अर्थात् वानर -योनि से है,न कि अपने शरीर
(श्रीहनुमान्-विग्रह ) से है | वहाँ आप कहते हैं --

'कहहु कवन मैं परम कुलीना | कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ||'
अर्थात् विभीषणजी ! आप अपने को राक्षसकुल का मानकर भय माता करें |बताइये ,मैं ही कौन -से बडे. श्रेष्ठ कुल का हूँ |वानरयोनि तो चञ्चल और पशु होने से सभी प्रकार से हीन है |हमारे कुल (वानर ) का अगर कोई प्रातः काल नाम ले ले तो उस दिन उसे आहार का ही योग नहीं लगता -श्री हनुमान की उपासना कब करनी चाहिये ?
'अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर |
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर |'

-ऐसे अधम कुल का मैं हूँ,किन्तु सखा ! सुनिये ' मुझ पर भी श्रीराम ने कृपा की है |'इस विरद को स्मरण कर कहते-कहते श्रीहनुमानन के नेत्रों में आँसू भर आये |
अतः 'हमारा 'शब्द का भाव यः है कि कुल तो हमारा ऐसा नीच है कि 'वानर' शब्द का ही सबेरे मुँह से निकालना अच्छा नहीं माना जाता ,परन्तु उसी योनि में उत्पन्न मैं जब प्रभु का कृपा पात्र बना लिया गया ,तब तो --

'राम कीन्हि आपन जबही तें | भयउँ भुवन भूषन तबही तें ||'
मेरे हनुमान ,महावीर ,बजरङ्गी ,पवनकुमार आदि नाम प्रातः स्मरणीय हो गये |
इसका प्रमाण इस प्रकार है --
'असुभ होइ जिन्ह के सुमिरन तें बानर रीछ बिकारी|
बेद बिदित पावन किए ते सब महिमा नाथ तिहारी ||'(विनय पत्रिका पद ११६ )

अतएव श्रीरामायण के उपर्युक्त पदों से श्री हनुमान का नाम सबेरे जपने का निषेध कदापि सिद्ध नहीं होता है ,उसका तात्पर्य 'बानर 'शब्द से ही है जो कुल की न्यूनता का द्योतक है ,स्वयं श्री हनुमानजी की न्यूनता का नहीं |कहीं - कहीं लोग ऐसा तर्क करते हैं कि हनुमानजी रात्रि में जगने के कारण सबेरे सोते रहते हैं अथवा सबेरे श्रीराम की मुख्य सेवा में रहते हैं ,इसलिये सवा पहर वर्जित है ; सो न तो इसका कोई प्रमाण अभी तक इस दीन को मिला है , और न तो यह बात उचित मालूम होती है कि योगिराज ,ज्ञानियों में अग्रगण्य श्रीहनुमान पहरभर दिन चढने तक सोते रहते हैं ,अथवा उनका अन्तिम दिव्य विग्रह और अमोघ शक्ति वपु एक रूप से सरकारी सेवा में तत्पर रहते हुए दूसरे अनेक रुपों से अपने भक्तों की सेवा स्वीकार करने में असमर्थ रहता है | जहाँ प्रेम पूर्वक श्रीराम नाम का जप तथा श्रीरामायण का पाठ होता है वहाँ तो मारुति सदैव विराजमान रहते हैं -चाहे वह प्रातः काल हो या कोइ काल हो |फिर इस झगडे. में पड.कर तो श्री हनुमान के आराम विश्राम के लिए सवा पहर भगवद्भजन भी छोड.ना पडे.गा ,जिसका छूटना ही उसकी दृष्टि में विपत्तिजनक है -

'कह हनुमन्त बिपति प्रभु सोई | जब तव सुमिरन भजन न होई ||'
अतएव इस दीन के तुच्छ विचार से तो सवा पहर क्या ,एक क्षण भी भाग्यवानों को श्री हनुमत् -नाम- भजन और पाठादि से विमुख नहीं करना चाहिये |
प्रातः काल का समय तो भजन के लिये है ही |श्री मारुति सदा तथा सब काल में वन्दनीय हैं --

''प्रवनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन |
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ||''
सियावर राम चन्द्र की जय !

सोमवार, 11 अगस्त 2014

तुलसीदासकृत रामचरितमानस : क्या रामचरितमानस में नारी जाति का अपमान है ?

क्या रामचरितमानस में नारी जाति का अपमान है ?

ढोल गंवार सूद्र पसु नारी | सकल ताड.ना के अधिकारी ||

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कुछ लोग इस चोपाई को लेकर श्रीगोस्वामी के ऊपर यह आक्षेप किया करते हैं कि उनके ह्रदय में स्त्रियों तथा सुद्रों के प्रति अच्छे भाव नहीं थे ;अतः इस पद के यथार्थ भाव को स्पष्ट कर देना आवश्यक जान पड.ता है |श्रीगोस्वामीजी के हस्तलिखित मानस-बीज की चतुर्थ प्रति के अनुसार जो श्रीवेण्कटेश्वर प्रेस से सं .१९५२ वि.में छपी थी ,'सूद्र ' पाठ न होकर 'छुद्र ' पाठ मिलता है,परन्तु दूसरी प्रतियों के अनुसार यहां 'सूद्र ' ही पाठ माना जाये
तो भी कोई विशेष आपत्ति नहीं है ,क्योंकि यहां तो भाव ही दूसरा है पहले तो ये वचन समुद्र द्वारा अपने अपराधों की क्षमा -भिक्षा के लिये कहे गये हैं ,

जैसे ----
सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे |छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ||
गगन समीर अनल जल धरनी | इन्ह कइ नाथ सहज जड. करनी ||
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही |मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ||
ढोल गवांर सूद्र पसु नारी | सकल ताड.ना के अधिकारी ||
तात्पर्य यह है कि यह उक्ति स्वयं गोस्वामीजी की नहीं है ,बल्कि एक अपराधी पात्र समुद्र के मुख से उसकी क्षुद्रता तथा गंवारपने के पश्चाताप के रूप में कही गयी है |यहां कोई आदर्श नहीं उपस्थित किया गया है ,केवल साधारण रीति नीति के द्वारा स्वभाव -कथन हुआ है | ''अधिकारी '' शब्द पर भी विचार करने से यह भाव कदापि नहीं प्रकट होता कि शुद्रों ,गंवारों ,पशुओं तथा स्त्रियों को पीटना ही चाहिये ,क्योंकि यहां ''ताड.ना '' कर्तव्य रूप में नहीं है ,बल्कि अधिकार रूप में है |शिक्षक को अधिकार होता है कि शिष्यों को--बालकों की ताड.ना करे ,परन्तु वह अधिकार मात्र ही होता है |शिक्षक तो उसका प्रयोग तभी करता है जब शिष्य - बालक के हित के लिये उसकी आवश्यकता पड.ती है |अधिकार ओर कर्तव्य दोनों एक नहीं | कर्तव्य का पालन तो आवश्यकओर अनिवार्य होता है ,परन्तु अधिकार के विषय में बात नहीं ,उसका तो आवश्यकता पड.ने पर प्रयोग होता है|तात्पर्य यह है -- यदि आवश्यकता पडे.तो इनको ताड.ना देकरसत्पथ पर लाना अनुचित नहीं होता| अतः उपर्युक्त पद का अभिप्राय कदापि यह नहीं हो सकता कि जो लोग अच्छे हों ,उन्हें भी व्यर्थ ताड.ना दी जाए | जिन व्यक्तियों के सुधार की आवश्यकता है, वे ताड.ना द्वारा निर्दोष बनाये जाने  के अधिकारी हैं , गंवार ओर शूद्र भी बडे. साधु ,महात्मा तथा सत्प्रकृति के होते हैं ,कितने पशु परम शान्त तथा प्रशंसनीय प्रकृति के होते हैं
,स्त्रियों में असंख्य पूज्य देवियां पाई जाती हैं ;तो क्या ये सभी ताडना  के अधिकारी हैं ? कदापि नहीं ! उस ढोल को कसने की जरूरत नहीं जिसका स्वर स्वयं ही सही है |  ''ताडना ''शब्द का तात्पर्य भी केवल शासन तथा शिक्षा ही है ; उन्हें दुःख देने के उद्देश्य से मारना -पीटना इसका कदापि अभिप्राय नहीं | यहां तो  ''ताड.ना ''शब्द का अभिप्राय उक्त पांचों व्यक्तियों के हितार्थ उन्हें शिक्षा देना ही होगा | रोष ,अमर्ष अथवा वैरभाव का प्रवेश यहां नहीं हो सकता |''अधिकारी ''शब्द से अपने हितैषी एवं निजत्त्व रखने वाले व्यक्ति ही अभिप्रेत हो सकते हैं | अन्य कोई मनुष्य जो किसी प्रकार का सम्बन्ध ही न रखता हो ,उसे ताड.ना देने का अधिकार कैसे हो सकता है ? क्योंकि अधिकार अपनी ही
वस्तु पर होता है ,अन्य का अन्य की वस्तु पर अधिकार संभव नहीं |''ताड.ना'' शब्द से यही ध्वनि निकलती है कि केवल उनके सुधारमात्र के लिये दण्ड प्रयोजनीय है |जैसे ढोल को इस प्रकार हिसाब से कसना तथा ठोकाना होता है ,जिससे वह सुरीली आवाज दे सके ;इतने जोर से ठोका तथा कसा जाता है कि वह बेकार [ बेकाम ] हो जाए |ढोल को ताड.ना देने का मतलब यह नहीं समझा जाता कि उसको उठा कर पटक दिया जाए कि जिससे वह चूर - चूर हो जाए अथवा किसी शस्त्र के आघात से उस पर चढि हुइ खाल को अलग कर दिया जाए |इसी प्रकार गंवार तथा क्षुद्र मनुष्यों को डरा - धमका कर सद्गुणी बनाना तथा बुद्धिमान बनाना ही यहां अभिप्राय हो सकता है न की उन्हें व्यर्थ पीटना अथवा मानहानि करना |पशुओं को भी लोग उतना ही डाटते हैं तथा भागने से रोकते हैं जितना कि उन्हें सुरक्षित रखने के लिये आवश्यक होता है ;निष्प्रयोजन उन्हें कोई नहीं पीटता ओर न ही इस प्रकार पीटने का किसी को अधिकार ही हो सकता है |इसी प्रकार स्त्रियों को स्वेच्छाचारिणी न होने देना ही यहां अभिप्रेत है ,जिससे वे शान्त ,गम्भीर स्वभाव वाली तथा सदाचारिणी बनी रहें |नारियों के लिये स्वेच्छाचारिणी होना सबके मत से दोषपूर्ण है|श्रीमानस में स्वयं भगवान् के श्री मुख से निकलता है---

 ''जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारी |''

तथा मनुस्मृति में भी कहा है --
''बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत पाणिग्राहस्य योवने |
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम् ||''
अर्थात् स्त्री जब बालिका होती है तब पिता के अधीन होती है ,जब योवन अवस्था होती है तब पति के अधीन होती है तथा पति के न रहने पर पुत्रों के अधीन रहती है| अतएव स्त्रियां सदा रक्षणीया होती हैं -यही नारी के प्रति ताड.ना का हेतु है,उन्हें अपमानित करना या कष्ट पहुंचाना कभी अभिप्रेत नहीं हो सकता | इस ''ताड.ना'' शब्द में स्वयं उनका हित ही सूचित है |यदि वे इस प्रकार ताड.ना द्वारा शिक्षित तथा शासित न होंगी तो उनकी उपयोगिता जाती रहेगी |तथा वे स्वयं तो बेकाम हो ही जाएंगी ,संसार में भी यत्र -तत्र तिरस्कार का ही पात्र उन्हें बनना पडे.गा |अतः जो काम हित की दृष्टि से हो रहा हो ,उसमें द्वेष् की भावना को खोजना ठीक नहीं | श्रीमानस में कहा है ---
''जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई |मातु चिराव कठिन की नाई ||
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर |
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर||''
इसके अनुसार प्रस्तुत विषय में द्वेषभाव की कोइ गुन्जाइश नहीं | श्रीमद्गोस्वामीजी ने तो ''नानापुराणनिगमागसम्मतम''ही कथन करने का संकल्प किया था ओर वही श्रीरामायण मे हम पाते हैं |
अतः श्रीगोस्वामीजी पर ही क्यों आक्षेप किया जाए ? यदि श्रीग्रन्थकार का स्त्रियों के प्रति एसा भाव होता तो उसी ग्रन्थ में हमें श्रीजगज्जननी सीता के पुनीत दिव्य चरित का दर्शन कैसे होता ? कोसल्या ,सुमित्रा ,आदि पूजनीय नारियों के दिव्य आदर्श भी हम वहां कैसे पाते ? शबरी ,त्रिजट आदि नीच जाति की स्त्रियों को उनकी भक्ति भावना के कारण श्रीगोस्वामीजी ने अपनी रामायण में वह स्थान दिया जो मुनियो को भी दुर्लभ है | राक्षसराज रावण की पत्नी मन्दोदरी के सतीत्व ओर पातिव्रत तथा बाली की स्त्री तारा के परम पुनीत चरित्र ,जो श्रीरामचरितमानस में वर्णित है , पढ.कर भी कोई कैसे आक्षेप कर कर सकता है ? विचारवान् पुरुष को ग्रन्थकार के उद्देश्य को देखकर तथा ग्रन्थ के अनुबन्ध -चतुष्टय पर विचार करके ही ग्रन्थकार के मत के विषय में टीका -
टीप्पणी करनी चाहिये ,अन्यथा आलोचनाक| मूल अभिप्राय ही नष्ट हो जायेगा ,फिर ग्रन्थ के विषय में जो कुछ शङ्का होगी वह निज के हार्दिक भावों को ही प्रकट करेगी |बस ,यही जिज्ञासुजनों की सेवा में मेरा निवेदन है | {मानस -शङ्का -समाधान} जयरामदास ' दीन '----गीताप्रेस , गोरखपुर

अभिज्ञानशाकुन्तलम्


कालिदास की नाट्यकला के प्रशन्सक का कथन है कि ,काव्य मे नाटक रमणीय होता है और
नाटको मे "अभिज्ञानशाकुन्तलम्",उसमे भी चतुर्थ अङ्क ,और उसमे भी श्लोक
चतुष्ट्य अत्यधिक रम्य है -

"काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला〡
तत्रापि चतुर्थोअङ्कस्तत्र श्लोक चतुष्ट्यम् ⅼ ⅼ"


चतुर्थ अङ्क को शाकुन्तलम् मे सर्वोत्तम मानने का मुख्य कारण यही है कि
इसमे करुण भाव का बडा ही विशद् एवं मार्मिक चित्रण हुआ है ⅼ

प्रथम श्लोक मे
पुत्री के विवाह के बाद विदाई पर उसके माता-पिता के ह्रदय मे जो
वात्सल्य उमडता है,उसका कवि ने बडा ही स्वाभाविक तथा आकर्षक चित्रण किया है
〡गृहस्थ लोग तो संसारी जीव होने के कारण माया मोह मे लिप्त रहते हैं〡

"यास्यत्यद्य शकुन्तलेति ह्रदयं संसपृष्टमुत्कण्ठया,
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडंदर्शनम् 〡
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्योकसः,
पीड्यन्ते गृहिण: कथं न तनयाविश्लेषदु:खैनवैः ⅼⅼ

 
अर्थात् आज शकुन्तला चली जायेगी,अतः ह्रदय दुःख से भर गया है ,कण्ठ
अश्रुप्रवाह रोकने के कारण गद्गद् हो गया है ,दृष्टि निश्चेष्ट हो गई है
〡मुझ वनवासी को शकुन्तला के प्रति स्नेह के कारण यदि ऐसी यह विकलता है तो
गृहस्थ लोग अपनी पुत्री के वियोग के दुःखो से कितने ही दुःखित होते होगे
,अर्थात् वे तो अत्यन्त ही दुःखी होते होगे 〡
{अभिज्ञानशाकुन्तलम्{4/6}

 

दुसरे मुख्य श्लोक में कालिदास की करुण - वेदना देखिये.....
विदाई के अवसर पर पिता का अपनी पुत्री को उपदेश तथा जामाता से निवेदन भी दृष्टव्य है⎹इस उपदेश तथा निवेदन मे भी पितृ - ह्रदय कि करुण वेदना ही छिपी ⎸पुत्री के सौभाग्य की कामना करते हुए ऋषि कण्व अपनी पुत्री को सदुपदेश देते हुए कहते हैं _


"सुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने ,
भर्तुर्वि प्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीप गमः ⎸
भूयिष्ठमं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्व नुत्सेकिनी ,
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ||" 


अर्थात् तुम सास -ससुर आदि की सेवा करना ,सपत्नियों के साथ प्रिय सखियों जैसा व्यवहार करना ,पति के द्वारा अपमानित होने पर भी रोष से उनके विरुद्ध आचरण मत करना ,सेवकों के प्रति अत्यन्त उदार रहना और अपने भाग्य पर गर्व मत करना | इस प्रकार का आचरण करने वाली स्त्रियां ही गृहिणी नाम को सार्थक करती हैं,और इसके विपरीत आचरण करने वाली स्त्रियां तो कुल के लिये पीडादायकहि होती हैं |
[अभिज्ञानशाकुन्तलम्4/18]

 

तीसरे श्लोक में कालिदास का प्रकृति चित्रण देखिये _

"पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ,
नादत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् |
आद्ये वः कुसुमुप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः ,
सेयं याति शकुन्तला पति-गृहं सर्वे रनुज्ञा
यताम् ||

 
अर्थात् शकुन्तला प्रकृति पुत्री है |प्रकृति पेल्वा होने के कारण आश्रम के
लता -वृक्षों तथा पशु -पक्षियों के साथ उसका सहॊदर स्नेह् है |वह पहले
वृक्षों को जल पिलाकर जल पीती थी ,अलंकारप्रिया होने पर भी स्नेह के कारण
वह उनका एक पत्ता भी नहीं तोडती थी तथा उनके प्रथमपुष्पोद्भव के समय वह पुत्रोत्सव मनाती

 थी |{अभिज्ञानशाकुन्तलम् 4/9}

 

चौथे मुख्य श्लोक 
एक शार्ङ्गरव -के माध्यम से दुष्यन्त के प्रति अपना भाव -भीना संदेश
देते हुए कहते हैं _


"अस्मान् साधु विचिन्त्य संयम धनानुच्चैः कुलं चात्मन -
स्त्वय्यस्याः कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम् |
सामान्य प्रतिपत्तिपूर्वक
मियं दारेषु दृश्या त्वया ,
भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः ||

 
अर्थात् हम तपस्वियों की निश्छलता ,अपने उच्चकुल तथा बिना हमारी अनुमति के
इसके द्वारा तुमसे किये गये प्रेम का अच्छी तरह विचार करके तुम्हें इसके
साथ अपनी अन्य पत्नियों के समान ही व्यवहार करना चाहिये ;इसके बाद जो कुछ
भी हो ;वह उसके भाग्य की बात होगी, अतः उस विषय में हमें कोई आपत्ति भी
नहीं होगी |


   
 

रविवार, 10 अगस्त 2014

संस्कृत भाषा (वर्तमान समय में संस्कृत की दिशा और दशा)

संस्कृत दिवस की शुभ कामनाएं

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वर्तमान समय में संस्कृत की दिशा और दशा ----

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संस्कृत भाषा विश्व की प्राचीनतम एवं श्रेष्ठतम भाषा है |आज भी स्वल्प
मात्रा में ही सही संस्कृत वाङ्गमय का प्रणयन हो रहा है ,पत्रिकाओं का
प्रकाशन हो रहा है मञ्च पर नाटक अभिनीत होते हैं तथा धाराप्रवाह भाषण 
दिये जाते हैं |इतना ही नहीं काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भरतीयों  के
सांस्कृतिक  तथा धार्मिक कृत्यों ,पूजा पद्धतियों एवं संस्कारों में
संस्कृत भाषा का समान रूप से प्रयोग होता है | इस प्रकार संस्कृत भाषा उपमा
 आदि अलङ्कारों ,माधुर्यादि गुणों से विभूषित एवं श्रङ्गारादि रसों में
परिलिप्त विश्व प्राङ्गण में शोभायमान है |

विभिन्न पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत भाषा का अध्ययन किया एवं इस निष्कर्ष पर
पहुंचे कि संस्कृत साहित्य संसार के सभ्य साहित्यों में अनुपम तथा अद्वितीय
 है इसकी प्राचीनता एवं व्यापकता ,सांस्कृतिक मूल्य ,और सौन्दर्य दृष्टि
सभी क्षेत्रों में यहाँ विश्व के किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकता है ।
संस्कृता भाषा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी शास्त्रीय उच्चारण पद्धति है ।
स्वर शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान भारतीय मनीषियों ने ''नाद''
विज्ञान का गंभीर अन्वेषण किया था ।
सत्य ,अहिंसा एवं विश्व बंधुत्व ,विश्व संस्कृति के तत्व सर्वप्रथम वेदों
एवं संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में ही प्राप्त होते हैं ।साहित्य समाज का
दर्पण होता है समाज जिस प्रकार का होगा वह उसी भाँति साहित्य में
प्रतिबिंबित रहता है ।  संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से सदैव अपनी
मधुर झांकी दिखलाया करती है ।
संस्कृति के उचित प्रचार एवं प्रसार का श्रेष्ठ साधन साहित्य ही है ।
संस्कृत भाषा दिव्य गुण सम्पन्न है । विभिन्न भाषाओं में देव स्तुति एवं
संपूर्ण देवकार्य संस्कृत में ही होते हैं । देवताओं के आह्वाहन के लिए
संस्कृत का ही प्रयोग होता है । इसीलिए इसे देवावाणी ,अमरगिरा ,सुरभारती
,गीर्वाणी ,आदि शब्दों से अलंकृत किया जाता है ।

वेद - वेदांग ,उपनिषद ,आरण्यक ,ब्राह्मण ग्रन्थ ,स्मृति ग्रन्थ ,पुराण
,महाभारत ,रामायण ,आदि शास्त्र संस्कृत भाषा में ही निबद्ध हैं । संस्कृत
भाषा में देवांगनाओं एवं उनके अखंड यौवन का वर्णन अद्वितीय है । इसीलिए
इसकी सराहना सभी जगह की जाती है । संस्कृत लिपि वैज्ञानिक है ।

इसकी वर्णमाला वैज्ञानिकों के लिये आज भी  पथ प्रदर्शक बनी हुई है |संस्कृत
व्याकरण विज्ञान की जड. मानी जाती है |इस प्रकार सभी गुण संस्कृत की
दिव्यता में प्रस्फुटित होते हैं | संस्कृत का  सौन्दर्य अवर्णनीय है | विश्व
 की अनेक भाषाओं के कलाकार संस्कृत भाषा के सामने नतमस्तक हैं |

संस्कृत -साहित्य जीवन की विषम परिस्थितियों के भीतर से भी आनन्द की खोज
में सदा संलग्न रहा है | आनन्द-सच्चिदानन्द भगवान का विशुद्ध रूप है |

भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति
ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है | इसीलिये संस्कृत साहित्य में
गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है |
संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी
पर घूमता है |दशरथ का आदर्श पितृत्व ,  कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का
आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा
सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही
विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है |
भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है |संस्कृत वाङ्गमय
जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का 
साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है |जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म
विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो |
कविता विलास कालिदास ने भी साहित्य रचना संस्कृत भाषा में ही की है |
घतखर्पर ने कालिदास की प्रशंसा करते हुए कहा है -
" पुष्पेषु  चम्पा , नगरीषु काञ्ची |
नदीषु गंगा , नृपतौ च रामः ||
नारीषु रम्भा , पुरुषेषु विष्णुः |
काव्येषु माघः , कवि कालिदासः || ''

कालिदास की तो उपमा सौन्दर्य ही चित्त कॊ आश्चर्य चकित कर देती है ,दूसरे
भारवि का अर्थगौरव तथा दण्डी की  पदलालित्य  लीला मन को गदगद कर देती है |
माघ की रचनाओं में तीनों उपर्युक्त कवियों के गुणों का संगम देखने को
मिलता है इसी प्रकार संस्कृत के समालोचकों ने इस प्रकार कहा है -
'' उपमाकालिदासस्य , भारवेरर्थगौरवं |
दण्डिनः पदलालित्यं , माघे सन्ति त्रयो गुणाः || ''

प्रायः सभी संस्कृत  कवियों ने प्रकृति का मनोहारी वर्णन अपनी रचनाओं  में
किया है इसीलिये कहा जाता है कि संस्कृत भाषा जैसी सरसता ,इसकी कोमलकान्त
पदावली संस्कृत साहित्य में ही परिलक्षित होती है ,अन्यत्र किसी भी भाषा
में नहीं |कालिदास के विषय में बाणभट्ट की निम्न उक्ति वास्तव में रमणीय है
 --
'' निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिसु |
प्रीतिर्मधुरसान्द्रसु मञ्जरीष्विव जायते || ''

मानव जीवन का आकर्षण बढता गया एवं संस्कृत भाषा को दिशा मिलती गई |संस्कृत भाषा तथा
साहित्य के अध्ययन में अत्यधिक अभिरुचि का परिचय देने वाला व्यक्ति हेनरी
टामस कोल्ब्रुक है ,इन्होंनें ही सबसे पहले  अपनी गम्भीरता तथा उद्योगशीलता
 से संस्कृत वाङ्गमय के लगभग सभी क्षेत्रों से संबन्धित निबन्धों का
प्रकाशन किया एवं वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया | इन्होंनें कतिपय
गौरवशाली ग्रन्थों का मूलपाठ और अनुवाद भी प्रस्तुत किया |इनके द्वारा
प्रस्तुत सामग्री परवर्ती विद्वानों के लिये बहुत उपकारिणी सिद्ध हुई |
संस्कृत साहित्य के अनुशीलन के लिये तुलनात्मक ,ऐतिहासिक,और वैज्ञानिक
दृष्टि प्रदान करने में पाश्चात्य विद्वानों का बहुत योगदान है |ग्रन्थों
के सम्पादन ,सुन्दर संस्करणो को प्रस्तुत करने में भी पाश्चात्य विद्वानों
की अहम भूमिका रही है | वर्तमान समय में संस्कृत भाषा एवं संस्कृत साहित्य
का अत्यधिक महत्व है एवं विश्व में संस्कृत भाषा का सम्मान विश्व की समस्त
भाषाओं में सर्वोच्च है |

ऋग्वेद में वर्णित संस्कृत  ही संस्कृत की जननी है --
''सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्वधारा ''
जिसकी उद्घोषणा प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ई.एच .जोनस्टन  ने इन शब्दों में की ----

''प्राचीन भारतीय विद्वानों को 'नाद' और 'ध्वनि तरंगों ' के विविध प्रकार
के मधुर संगम से जो महान अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है वह अन्य भाषा एवं
साहित्य से असंभव है |
महाकवि विजयदेव के गीत गोविन्द हृदय के लिये रसायन है अतः कहा गया है ---
'' मधुरकोमलकान्त पदावली श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम् |''
सुरभारती की सरसता का अनुभव सरविलियम जान्स -गेटे-विल्सन आदि पाश्चात्य विभूतियों  ने सब कुछ छोड.कर संस्कृत साहित्य के उपासक बनने की शिक्षा दी है |विल्सन ने संस्कृत माधुर्य का अवलोकन कर इस प्रकार कहा है --
''अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |
देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || ''
जनश्रुति है कि राजा भोज ने एक लकड.हारे के सिर पर बोझ देखकर परादुःखकातर हो उससे संस्कृत में पूछा कि तुम्हें यह बोझ कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है और 'बाधति 'क्रिया का प्रयोग किया |इस पर लकड.हारे ने उत्तर दिया --
'महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के  स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है | इसी प्रकार से उस जुलाहे की बात हम कभी नहीं भूल सकते ,जिसने संस्कृत में अपना परिचय देते समय कहा था --
'' काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि |
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि |
भूपाल - मौलिमणि -मण्डित पाद पीठ |
हे साहसाकं ! कवयामि वयामि यामि ||''
अंततः कहा जा सकता है कि जिस भाषा को रथ हाँकने वाला ,लकङी का बोझा उठाने वाला ( लकड.हारा ) और कपङा बुनने वाला ( जुलाहा ) समझे और बोले उसे बोलचाल की भाषा न कहना महान् अपराध ही है |संस्कृत भाषा आधुनिक विद्वानों और अनुशीलकों के मत से विश्व की पुराभाषाओं में संस्कृत सर्वाधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और संपन्न भाषा है। वह आज केवल भारतीय भाषा ही नहीं, बल्कि विश्वभाषा भी है। यह कहा जा सकता है कि भूमंडल के प्रयत्न-भाषा-साहित्यों में कदाचित् संस्कृत का वाङ्गमय सर्वाधिक विशाल, व्यापक, चतुर्मुखी और संपन्न है। संसार के प्राय: सभी विकसित और संसार के प्राय: सभी विकासशील देशों में संस्कृत भाषा और साहित्य का आज अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।