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रविवार, 31 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथप्रथमोऽध्यायः (२८-४७)

२८-४७ मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता ,स्नेह,और शोक युक्त वचन |

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ||
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |

अर्थ - उन उपस्थित संपूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्ती पुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा
से युक्त होकर शोक करते हुए यह  वचन बोले || २७वें का उत्तरार्ध २८वें का पूर्वार्ध ||

अर्जुन उवाच-
दृष्ट्वेमं  स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ||
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ||

अर्थ  -अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध क्षेत्रके अभिलाषी इस
 स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा
 जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप एवं रोमाञ्च हो रहा है || २८वें का उत्तरार्ध और२९||

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ||

अर्थ  - हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा
मन भ्रमित-सी हो रहा है ;इसलिये मैं खडा रहने को भी समर्थ नहीं हूं ||३०||

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवः |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि  हत्वा स्वजनमाहवे ||

अर्थ - हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देखा रहा हूं तथा युद्ध में
स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता ||३१||

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ||

अर्थ - हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूं और न राज्य तथा सुखों को ही |
हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और
 ऐसे जीवन से भी क्या लाभ है ?||३२||

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ||

अर्थ- हमें जिनके लिये राज्य,भोग और सुखादि अभीष्ट हैं ,वे ही ये सब धन 
और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खडे. हैं ||३३||

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः |
मातुलाः श्वषुराःपौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ||

अर्थ  - गुरुजन,ताऊ-चाचे लड.के और उसी प्रकार दादे ,मामे ,ससुर ,पौत्र 
साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ||३४||

एतान्नहन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्य राज्यस्य हेतोः किं नु मही कृते ||

अर्थ  - हे मधुसूदन ! मुझे मारने  पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये 
भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता ;फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या ?||३५||

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन|
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ||

अर्थ-हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों
 को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ||३६||

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम  माधव ||

अर्थ-अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धार्तराष्ट्र के पुत्रों को मारने  के लिये हम योग्य
नहीं हैं ;क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?||३७||

यद्द्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ||
कथं न ज्ञेयंस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ||

अर्थ- यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और
मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते ,तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से
उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं
विचार करना चाहिये ?||३८-३९||

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अर्थ-कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं ,धर्म के नाश हो जाने
पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ||४०||

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टाषु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ||

अर्थ -हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यन्त दूषित हो जाती हैं
और हे वार्ष्णेय !स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसङ्कर  उत्पन्न होता है ||४१||
 सङ्करो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिन्डोदकक्रियाः ||
अर्थ-वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है |लुप्त
हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण  से वञ्चित इनके
पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ||४२||

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः |
उत्साद्द्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ||

अर्थ-इन वर्ण संकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल -धर्म
 और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ||४३||

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||

अर्थ- हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है,ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित
काल तक नरक में वास होता है,ऐसा हम सुनते आये हैं ||४४||

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ||

अर्थ - हा ! शोक !हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं ,
जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने  के लिये उद्द्यत हो गये हैं ||४५||

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं  शस्त्रपाणयः |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ||

अर्थ- यदि मुझ शस्त्र रहित और सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये
हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक
कल्याणकारक  होगा ||४६||

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः||

अर्थ-संजय बोले -रण भूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार
कहकर ,बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ||४७||

                    ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
                               योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो
                                              नाम प्रथमोऽध्यायः ||१||

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