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रविवार, 31 अगस्त 2014

श्रीमद्भगवद्गीत -अथ प्रथमोऽध्यायः ( २०-२७ )


२०-२७  अर्जुन द्वारा सेना का पारीक्षण प्रसंग |

 अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्द्यम्य पाण्डवः ||
ह्रिषीकेशं  तदा वाक्यमिदमाह   महीपते |
अर्जुन उवाच 
सेनयोरुभयोर्मध्ये  रथं स्थापय मेऽच्युत||

अर्थ -हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बांधकर डटे हुए
धृतराष्ट्र-संबन्धियों को देखकर,उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष
उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा -हे अच्युत ! मेरे रथ
को दोनों सेनाओं के बीच खडा कीजिये ||२०-२१||

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्द्यमे ||

अर्थ-और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी
 योद्धाओं  को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन
के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक उसे खडा रखिये ||२२||

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ||

अर्थ - दुर्बुद्धि दुर्योधन का हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में
आये हैं ,इन युद्ध करने वालों को मै देखूंगा ||२३||

सञ्जय उवाच -
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ||
भीष्मद्रोणाप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ||

अर्थ - संजय बोले - हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज
श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा
संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खडा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ!
युद्ध के लिये जूते हुए इन कौरवों को देख ||२४-२५ ||

तत्रा पश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ||
श्वशुरान्सुह्रिदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |

अर्थ -इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनो ही सेनाओं में स्थित ताऊ -चाचों को,
दादों -परदादों को,गुरुओं को,मामाओं को,भाइयों को,पुत्रों को,पौत्रों को,तथा मित्रों
को,ससुरों को,और सुहृदों को भी देखा ||२६और २७वें का पूर्वार्ध ||

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