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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता , अथतृतीयोऽध्यायः ( २५-३५ )


२५-३५ अज्ञानी और ज्ञानवान् के लक्षण तथा राग - द्वेष से रहित होकर 
कर्म करने के लिये प्रेरणा |

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ||

अर्थ-हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं ,आसक्ति
रहित विद्वान भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ||२५||

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ||

अर्थ - परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह  शास्त्रविहित
कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे ।किन्तु
 स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली भाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे॥२६॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

अर्थ - वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तः
करण अहंकार से मोहित हो रहा है ,ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ ' ऐसा मानता है ॥२७॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

अर्थ -परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग (१.त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और
मन ,बुद्धि ,अहंकार ,तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ,पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय - इन सबके
समुदायका नाम 'गुणविभाग 'है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्मा विभाग है ' है ।)
के तत्त्व ( उपर्युक्त 'गुणविभाग' और 'कर्मविभाग ' से आत्मा को पृथक अर्थात निर्लेप जानना ही
इनका तत्त्व जानना है । ) को जानने वाला ज्ञानयोगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ,ऐसा
समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ॥२८॥

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ||

अर्थ - प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं , उन
पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे||२९||

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्य स्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||

अर्थ - मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके
आशारहित ,ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर ||३०||

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः  ||

अर्थ -जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण
करते हैं  , वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं ||३१||

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तन्विद्धि नष्टानचेतसः ||

अर्थ -परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं , उन
मूरर्खों को तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ||३२||

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानापि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||

अर्थ -सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं | ज्ञानवान
 भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है | फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ?||३३||

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्चेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||

अर्थ -इन्द्रिय - इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं |
मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होने चाहिये ,क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने
वाले महान शत्रु हैं ||३४||

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुतिष्ठतात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो            भयावहः ||

अर्थ -अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है |
अपने धर्म में तो मरणा भी कल्याण कारक है और दूसरे का  धर्म भय को देने वाला है ||३५||

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

मेरा लेख - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ............

मेरा लेख-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ...........

यत्र  नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः |
यतैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ||
अर्थात् मनुस्मृति में नारी की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि - जहाँ नारियों की
 पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है , जहाँ इनका आदर नहीं होता है अथवा इनका
अपमान होता है , वहाँ सारे धर्म - कर्म निष्फल हो जाते हैं ।
नारी पुरुष की पूरक सत्ता है । वह मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है उसके बिना पुरुष अपूर्ण है । 
नारी ही उसे पूर्णता देती है । पुरुष के उजड़े हुए उपवन को नारी ही पल्लवित बनाती है। संसार 
का प्रथम मानव भी जोड़े के रूप में धरती पर अवतरित हुआ था । संसार की सभी पौराणिक 
कथाओं में इसका उल्लेख है । मनुस्मृति में उल्लिखित है कि -
द्विधा कृत्वाऽऽत्मनस्तेन देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् |
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः ||
अर्थात् उस हिरण्यगर्भ ने अपने शरीर के दो भाग किये आधे से पुरुष और आधे से स्त्री का 
निर्माण हुआ ।
 वैसे तो स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पुरक हैं फिर भी कर्त्तव्य , उत्तरदायित्व तथा त्याग के 
कारण पुरुष से नारी कहीं अधिक महान है । नारी जीवन यात्रा में पुरुष के साथ ही नहीं चलती
 वरन समय आने पर उसे शक्ति और प्रेरणा भी देती है । नारी की वाणी जीवन के लिए अमृत 
स्रोत है । उसके नेत्रों में करुणा , ममता और सरलता के दर्शन होते हैं । नारी की हँसी में संसार
 की निराशा और कड़वाहट मिटाने की अपूर्व क्षमता है। 
 संसार के सभी महापुरुषों ने नारी में उसके दिव्य स्वरूप के दर्शन किये हैं ,जिससे वह पुरुष के 
लिए पुरक सत्ता के ही नहीं बल्कि उर्वर भूमि के रूप में उसकी उन्नति ,प्रगति एवं कल्याण का 
साधन बनती है । नारी जन्मदात्री है । संसार का प्रत्येक भावी मनुष्य नारी की गोद में ही खेल -
कूद कर बड़ा होता है । कवि जयशंकर प्रसाद जी नारी के प्रति श्रद्धा रखते थे । कामायनी में
उन्होंने लिखा है -
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विशवास रजत नभ - पग  - तल में । 
पीयूष स्रोत - सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में ॥ 
हमारे समाज में स्त्री  का क्या महत्त्व है । इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि 
वह जननी है । यदि जननी न हो तो कैसे संसार का उद्भव होगा और कैसे समाज का सृजन
 होगा ? 
प्राचीन काल से ही नारियाँ घर - गृहस्थी को ही नहीं देखती आ रहीं हैं बल्कि समाज , राजनीति
 धर्म , कानून , न्याय , सभी क्षेत्रों में वो पुरुषों की संगिनी , सहायक तथा प्रेरक भी रही हैं । नारी 
अपने विभिन्न रूपों में सदैव मानव जाति के लिए त्याग बलिदान ,स्नेह ,श्रद्धा ,धैर्य ,सहिष्णुता
 का जीवन बिताती है । माता पिता के लिए आत्मीयता ,सेवा की भावना जितनी पुत्री में है वैसी 
अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती । बेटियों को पराया कहा जाता है लेकिन पराये घर जाकर
 भी पुत्री अपने माँ -बाप से कभी अलग नहीं हो सकती । उसमें परायेपन की भावना कभी नहीं 
आती ,उसके हृदय में वही सम्मान ,सेवा की भावना भारी रहती है । बहन के रूप में भी वह सदैव
 अपने भाईबहन के हित की ही कामना करती है । 
माँ तो माँ ही है । बच्चे के हित की चिंता ,उसका भला सोचने वाला माँ के समान संसार में कोई 
नहीं है । संसार के सब लोग मुँह मोड़ लें किन्तु एक माँ ही ऐसी होती है जो अपने पुत्र के लिए 
सदा सर्वदा सब कुछ करने के लिए तैयार रहती है । 
पत्नी के रूप में नारी पुरुष की जीवन संगिनी ही नहीं होती वह सब प्रकार से पुरुष का हित साधन
 करती है । शास्त्रकार ने भार्या को छः प्रकार से पुरुष के लिए हित साधक बतलाया है -
कार्येषु मंत्री ,कर्णेषु दासी ,भोज्येषु माता ,रमणेषु रम्भा । 
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री ,भार्या च षड्गुणवती च दुर्लभा ॥
अर्थात कार्य में मंत्री के सामान कार्य करने वाली ,भोजन कराने में माता के समान पथ्य देने 
वाली ,आनन्दोपभोग के लिए रम्भा के समान धर्म और क्षमा को धारण करने में पृथ्वी के 
समान क्षमाशील ऐसे छः गुणों से युक्त स्त्री सचमुच एक दुर्लभ रत्न है । 
हमारा समाज नारी और पुरुष के सहयोग से ही बनता है । घर बसाना ,परिवार चलाना और 
उसकी व्यवस्था रखना नारी के हाथ में ही है ।यदि वह अपने इस दायित्त्व से विमुख हो
जाए अथवा उपेक्षा बरतने लगे तो कुछ ही समय में यह व्यवस्थित दिखाई देने वाला
 समाज अस्त व्यस्त दिखाई देने लगेगा । सृष्टि से लेकर समाज का संचालन क्रम
मुख्यतः नारी पर ही निर्भर है ।
जो स्त्री निर्माणक तथा पालन करने वाली है , यदि वह अपने तन मन से प्रसन्न रहेगी तो
उसकी सृष्टि भी उसी प्रकार से प्रफुल्लित और प्रसन्न होगी ।  बुद्धिमानी इसी में है कि हम
 नारी का समुचित आदर करते हुए उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते रहें ।
भारत के अतीतकालीन गौरव में नारियों का बहुत अंशदान रहा है । उस समय माँ संतान को
बड़े उत्तरदायित्त्व पूर्ण ढंग से पालती थी । किन्तु वह अपने इस दायित्व को निभा तब ही
सकी ,जब उसको स्वयं अपना विकास करने का अवसर दिया गया है । जिस नारी का स्वयं
 अपना विकास नहीं हुआ हो वह स्त्री विकासशील समाज का निर्माण कैसे करेगी ? स्त्रियाँ
अपने इस दायित्त्व को पूरी तरह से निभा पायें इसके लिए आवश्यक है कि स्त्री को सारे
शैक्षणिक एवं सामजिक अधिकार समुचित रूप से दिए जाएं ।
प्राचीन काल में स्त्रियों के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी । समाज में आने जाने और
गतिविधियों में भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता थी । यज्ञ में होता ऋत्विज के रूप में बैठती थीं
और धर्म ,कर्म में हाथ बँटाती हुई तत्त्व दर्शन किया करती थीं ।यही  कारण है की वे गुण,
कर्म स्वभाव में पुरुषों के सामान ही उन्नत हुआ करती  थीं और इसी कारण उनकी संतान
भी गुणवती होती थी ।
जब तक समाज में इस प्रकार की मंगल परंपरा चलती रही ,समाज में सुख शान्ति
और सम्पन्नता बनी रही , किन्तु जैसे ही इस परम्परा में व्यवधान आया नारी को
 उसके आवश्यक अधिकारों से वंचित किया गया , समाज का पतन होना प्रारम्भ
 हो गया और जैसे - जैसे नारी को दयनीय बनाया जाता रहा , समाज अधोगति
को प्राप्त होता गया ।
वेद आर्य जाति की आधारशिला है । मनु ने वेदों को सारे ज्ञानों का आधार मानकर
उन्हें सर्वज्ञानमय कहा है । वैदिकयुगीन स्त्री शिक्षा उच्चतम शिखर पर थी । लम्बे
समय तक परिवार ही एकमात्र शिक्षण संस्था थी । बालक एवं बालिकाएं परिवार में
ही शिक्षा ग्रहण करते थे । अनेक महिलाएं अध्यापिकाओं का जीवन व्यतीत करतीं
थीं । ऐसी महिलाएं उपाध्याया कही जातीं थीं ।
वेदों में नारी के गौरव का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है नारी को ज्ञान विज्ञान में
निपुण होने के कारण ब्रह्मा बतलाया गया है । ऋग्वेद में स्त्री को परिवार की स्वामिनी
महारानी कहा गया है -
साम्राज्ञी श्व्शुरे भव साम्राज्ञी स्वाश्र्वां भव । 
ननान्दरी साम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधि देवृषु ॥
नारी का सहयोग मानव - जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है । आवश्यकता इस बात
 की है कि हम नारी को समाज में वही स्थान वही प्रतिष्ठा दें जिसकी आज्ञा हमारे ऋषियों
मनीषियों ने दी है । उसे सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ाएं । स्त्री जीवन यात्रा में हमारे लिए बोझ न
 होकरहमारी सहयोगिनी और सहायक सिद्ध होगी । तब हमें स्त्री के भविष्य को लेकर चिंतित
नहीं होना पड़ेगा ।
श्रीराम के जीवन में सीता न हो तो रामायण में कुछ नहीं रहा जाता , द्रौपदी , कुंती , गांधारी,
आदि का चरित्र निकाल देने पर महाभारत की गाथा कुछ नहीं रह जाती ,पाण्डवों का जीवन
संग्राम अपूर्ण रह जाता है । शिवा के साथ पार्वती ,कृष्ण के साथ राधा श्रीराम के साथ सीता ,
विष्णु के साथ लक्ष्मी का नाम हटा दिया जाए तो इनकी लीला ,गाथा ,इनका चरित्र अधूरे
रह जाते हैं ।
अतः हम स्त्री की महानता को समझ सकते हैं । स्त्री समाज का केंद्र बिंदु है ।

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथतृतीयोऽध्यायः (१७-२४)

 १७-२४  यज्ञवान् और भगवान् के लिये भी लोक सङ्ग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता |

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्येव कार्यं  विद्यते ||

अर्थ-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला है और आत्मा में ही तृप्त तथा
आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाला हो , उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ||१७||

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||

अर्थ-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों
के  करने से ही कोई प्रयोजन रहता है | तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र
भी स्वार्थ सम्बन्ध नहीं रहता ||१८||

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः||

अर्थ - इसलिये तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति
 करता रह | क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को
 प्राप्त हो जाता है ||१९||

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||

अर्थ- जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए
थे | इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे
कर्म करना ही उचित है ||२०||

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||

अर्थ - श्रेष्ठ पुरुष जो -जो  आचरण करता है ,अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण
करते हैं |वह जो कुछ प्रमाण कर देता है ,समस्त मनुष्य जन समुदाय उसी के अनुसार
बरतने लग जाता है ( यहां क्रिया में एकवचन है परंतु ' लोक ' शब्द समुदायवाचक होने
 से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गयी है | )||२१||

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||

अर्थ - हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त
 करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ||२२||

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||

अर्थ-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर मैं कर्मों में  न बरतूँ तो बड़ी
हानि हो जाये ; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ||२३||

उत्सीदेयुरीमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । 
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ 

अर्थ-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं संकरता का 
करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ॥२४॥

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथतृतीयोऽध्यायः ( ९-१६ )

९-१६ यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरुपण |
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ||
अर्थ -यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा 
हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है | इसलिये हे अर्जुन ! तू आसक्ति
 से  रहित उस यज्ञ के निमित्त ही भली भाँति कर्तव्य कर्म कर ||९||
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
 प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तित्वष्टकामधुक् ||
अर्थ - प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे
 कहा कि तुम इस यज्ञ केद्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को
इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ||१०||

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्यस्यथ ||

अर्थ -तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम
लोगों को उन्नत करें | इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते
हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ||११||

इष्टान्भोगान्हि  वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ||
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ||

अर्थ -यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित भोग
निश्चय ही देते रहेंगे |इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को
जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है ,वह चोर ही है ||१२||

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्  ||

अर्थ-यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते
 हैं और जो पापी लोग अपना शरीर - पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं
वे तो पाप को ही खाते हैं ||१३||

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः ||
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरमसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ||

अर्थ - संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती
 है , वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से होने वाला है | कर्म समुदाय
 को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान |
इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में
 प्रतिष्ठित है ||१४-१५||

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||

अर्थ -हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित स्रुष्टिक्रम के
अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता ,वह इन्द्रियों के
द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है ||१६||

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - कर्मयोग, अथतृतीयोऽध्यायः ( १-८ )

श्रीमद्भगवद्गीता - कर्मयोग , अथतृतीयोऽध्यायः 

  १-८ ज्ञानयोगऔर कर्मयोग के अनुसार अनासक्तभाव से नियत कर्म
करने की श्रेष्ठता का निरुपण |

अर्जुन उवाच
ज्यायसि चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दना |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ||

अर्थ-अर्जुन बोले - हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ
मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हो ?|| १ ||

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ||

अर्थ- आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं |
इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण
को प्राप्त हो जाऊँ || २ ||

श्रीभगवानुवाच 
लोकेऽस्मिन्द्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||

अर्थ-श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप !इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा ( साधन
की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ' निष्ठा ' है | ) मेरे द्वारा पहले
 कही गयी है | उनमें से साङ्ख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से ( माया से
उत्पन्न हुए संपूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं ,ऐसे समझकर तथा मन ,इन्द्रिय
और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित
होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का
नाम ' ज्ञानयोग ' है , इसी को ' सन्यास ',' सान्ख्ययोग ' आदि नामों से कहा
 गया है | ) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से ( फल और आसक्ति को त्याग
 करभगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम
' निष्काम कर्मयोग ' है इसी को ' समत्वयोग ' ,' बुद्धियोग ' ,' कर्मयोग ' ,
' तदर्थकर्म ' ' मदर्थकर्म  ' ,' मत्कर्म ' आदि नामों से कहा गया है | )
होती है || ३ ||

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं  पुरुषोऽश्नुते |
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||

अर्थ-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को ( जिस अवस्था को
प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते ,उस
 अवस्था का नाम ' निष्कर्मता ' है | )यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों
 के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा को ही  प्राप्त होता है ||४||

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ||

अर्थ- निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये
नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गणों द्वारा परवश हुआ
कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है ||५||

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||

अर्थ- जो मूढ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मनसे
 उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी
कहा जाता है ||६||

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ||

अर्थ- किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त
हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है,वही श्रेष्ठ है ||७||

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ||

अर्थ-तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर ;क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म
 करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर -निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ||८||