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रविवार, 5 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथतृतीयोऽध्यायः ( ९-१६ )

९-१६ यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरुपण |
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ||
अर्थ -यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा 
हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है | इसलिये हे अर्जुन ! तू आसक्ति
 से  रहित उस यज्ञ के निमित्त ही भली भाँति कर्तव्य कर्म कर ||९||
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
 प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तित्वष्टकामधुक् ||
अर्थ - प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे
 कहा कि तुम इस यज्ञ केद्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को
इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ||१०||

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्यस्यथ ||

अर्थ -तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम
लोगों को उन्नत करें | इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते
हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ||११||

इष्टान्भोगान्हि  वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ||
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ||

अर्थ -यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित भोग
निश्चय ही देते रहेंगे |इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को
जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है ,वह चोर ही है ||१२||

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्  ||

अर्थ-यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते
 हैं और जो पापी लोग अपना शरीर - पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं
वे तो पाप को ही खाते हैं ||१३||

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः ||
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरमसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ||

अर्थ - संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती
 है , वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से होने वाला है | कर्म समुदाय
 को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान |
इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में
 प्रतिष्ठित है ||१४-१५||

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||

अर्थ -हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित स्रुष्टिक्रम के
अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता ,वह इन्द्रियों के
द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है ||१६||

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