१७-२४ यज्ञवान् और भगवान् के लिये भी लोक सङ्ग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता |
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्येव कार्यं विद्यते ||
अर्थ-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला है और आत्मा में ही तृप्त तथा
आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाला हो , उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ||१७||
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||
अर्थ-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों
के करने से ही कोई प्रयोजन रहता है | तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र
भी स्वार्थ सम्बन्ध नहीं रहता ||१८||
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः||
अर्थ - इसलिये तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति
करता रह | क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को
प्राप्त हो जाता है ||१९||
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||
अर्थ- जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए
थे | इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे
कर्म करना ही उचित है ||२०||
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||
अर्थ - श्रेष्ठ पुरुष जो -जो आचरण करता है ,अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण
से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गयी है | )||२१||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||
अर्थ - हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त
करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ||२२||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||
अर्थ-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर मैं कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्येव कार्यं विद्यते ||
अर्थ-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला है और आत्मा में ही तृप्त तथा
आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाला हो , उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ||१७||
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ||
अर्थ-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों
के करने से ही कोई प्रयोजन रहता है | तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र
भी स्वार्थ सम्बन्ध नहीं रहता ||१८||
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः||
अर्थ - इसलिये तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति
करता रह | क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को
प्राप्त हो जाता है ||१९||
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||
अर्थ- जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए
थे | इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे
कर्म करना ही उचित है ||२०||
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||
अर्थ - श्रेष्ठ पुरुष जो -जो आचरण करता है ,अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण
करते हैं |वह जो कुछ प्रमाण कर देता है ,समस्त मनुष्य जन समुदाय उसी के अनुसार
बरतने लग जाता है ( यहां क्रिया में एकवचन है परंतु ' लोक ' शब्द समुदायवाचक होनेसे भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गयी है | )||२१||
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||
अर्थ - हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त
करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ||२२||
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||
अर्थ-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर मैं कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी
हानि हो जाये ; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ||२३||
उत्सीदेयुरीमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
अर्थ-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं संकरता का
करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ॥२४॥
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