Pages - Menu

शनिवार, 27 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथद्वितीयोऽध्यायः ( ५४- ७२ )


५४- ७२ स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा |

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ||

अर्थ-अर्जुन बोले हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि
पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और
कैसे चलता है ?||५४||

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||

अर्थ - श्री भगवान् बोले - हे अर्जुन !जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण
कामनाओं  को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में  ही संतुष्ट
रहता है ,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः |
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ||

अर्थ - दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता ,सुखों की प्राप्ति
में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट  हो गए हैं , ऐसा
मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ॥५६॥

  यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ - जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त
होकर न प्रसन्न होता है और न दोष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ||५७||

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः |
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य  प्रज्ञा प्रतिष्ठा ||
  
अर्थ - और कछुवा सब ओर से जैसे अपने अङ्गो  को समेट लेता है ,वैसे ही
जब यह  पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हता लेता है ,
तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये |) ||५८||

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||

अर्थ - इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करणे वाले पुरुष के भी केवल
विषयतो निवृत्त हो जाते हैं ,परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं
होती | साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ||५९||

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||

अर्थ- हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाववाली
इन्द्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है ||६०||

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः |
वसे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ-इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन संपूर्ण इन्द्रियों को वश में
करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ,क्योंकि
जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती  हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ||६१||

ध्यायतो   विषयान्पुंसः   सङ्गस्तेषुपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || 

अर्थ -विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो
 जाती है , आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना
में विघ्न पड.ने से क्रोध उत्पन्न होता है ||६२||

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

अर्थ-क्रोध से अत्यन्त मूढ.भाव उत्पन्न हो जाता  हैं, मूढ.भाव से स्मृति
में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का
नाश हो जाता है ,और बुद्धि का नाश हो जाने से यह  पुरुष अपनी स्थिति
से गिर जाता है ||६३||

रागद्वेषवियुक्तैस्तु  विषयानिन्द्रियैश्चरन् |
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसदमधिगच्छति ||

अर्थ - परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तः करण वाला साधक अपने वश में
की हुई,राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ
अन्तः करण की   प्रसन्नता को प्राप्त होता है ||६४||

 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठिते ||

अर्थ- अन्तःकरण  की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुःखों का अभाव
हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब
ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भांति स्थिर हो जाती है || ६५ ||

नास्ति बुद्धिर्युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ||

अर्थ - न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि 
नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तः करण में भावना भी नहीं 
होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्ति 
रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ?||६६||
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||

अर्थ- क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है वैसे ही 
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता 
है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ||६७||

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ- इसलिये हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों 
से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं ,उसी कि बुद्धि स्थिर है ||६८||

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||

अर्थ - संपूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है उस नित्य 
ज्ञान स्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है 
और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते
 हैं , परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के 
समान है ||६९||

 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं -
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे 
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ||

अर्थ - जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण ,अचल प्रतिष्ठा वाले 
समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे हीइ सब भोग
 जिस स्थित प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही
 समा जाते हैं ,वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है ,भोगों को चाहने 
वाला नहीं ||७०||

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निः स्पृहः |
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधि गच्छति ||

अर्थ-जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित,अहङ्कार 
रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है,वही शान्ति को प्राप्त होता है ,
अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है ||७१||

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||

अर्थ-हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है,इसको
 प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्त काल में भी
 इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ||७२|| 

               ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनित्सु ब्रह्मविद्यायां
                        योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो
                                     नाम द्वितीयोऽध्यायः ||२||

बुधवार, 24 सितंबर 2014

मां अम्बे की आरती

जय माता दी  
 नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनायें |

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी |
तृतीयं  चन्द्रघण्तेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ||
पञ्चमं स्कन्दमातेति  षष्ठं कात्यायनीति च |
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गा प्रकीर्तिताः ||

मां अम्बे की आरती 

ओ अम्बे तू है जगदम्बे काली , जय दुर्गे खप्पर वाली , तेरे ही गुण गायें भारती ,
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
तेरे जगत के भक्त जनों पर भीड. पडी है भारी मां , भीड. पडी है भारी ,
दानव दल पर टूट पडो मां -2 करके सिंह सवारी ,
सौ - सौ सिंहों से तू बलशाली ,अष्ट  भुजाओं  वाली , दुष्टों को तू ही ललकारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
नहीं मांगते धन और दौलत ना चान्दी ना सोना मां , ना चान्दी ना सोना,
हम तो मांगें मां तेरे मन में -2 एक छोटा सा कोना ,
सबकी बिगडी बनाने वाली ,लाज बचाने वाली ,सतियों के सत को संवारती |
ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
मां बेटे का है इस जग में बडा ही निर्मल नाता मां , बडा ही निर्मल नाता ,
पूत कापूत सुने हैं पर ना -2 माता सुने कुमाता ,
सबपे करुणा बरसाने वाली , अमृत बरसाने वाली ,नइया भंवर से उबारती |
 ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
चरण  - शरण में खडे हुए हैं ले पूजा की थाली मां , ले पूजा की थाली,
मानवाञ्छित फल देदो माता -2 जाये ना कोई खाली ,
सबके कष्ट मिटाने वाली , झोली भर देने वाली ,दुखियों के दुःख को निवारती |
  ओ मइया हम सब उतारें तेरी आरती | अम्बे..........
बोलो अम्बे मात की जय |

श्रीमद्भगवद्गीता - अथद्वितीयोऽध्यायः ( ३९-५३ )


३९-५३  कर्मयोग का विषय |

एषा तेऽभिहिता  साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु |
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||

अर्थ- हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषय में कही गयी और अब तू 
इसको कर्मयोग ए विषय में सुन -जिस बुद्धि से युक्त हु आ तू कर्मों के बन्धन 
को भली भांति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा ||३९||

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||

अर्थ - इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उल्टा फलरूप
दोष भी नहीं है , बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा सा भी साधन जन्म मृत्यु 
रूपमहान भय से रक्षा कर लेता है ||४०||

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||

अर्थ- हे अर्जुन ! इस कर्मयोग निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है ; किन्तु अस्थिर
 विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत ही भेदों वाली 
और अनन्त होती हैं  ||४१||

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः |
वेदवादरताः पार्थ  नान्यदस्तीति  वादिनः ||
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रिया विशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ||
भोगैश्वर्य प्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||

अर्थ -हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं ,जो कर्मफल के प्रशंसक वेद वाक्यों
 में ही प्रीति रखते हैं ,जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग 
से बढकर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है - जो ऐसा कहने वाले हैं ,वे अविवेकीजन इस
 प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि 
 जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार
 की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ,उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर 
लिया गया है ,जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं ; उन पुरुषों की परमात्मा
 में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती है ||४२-४४||

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्य भावार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||

अर्थ - हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों 
एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं ; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके 
साधनों में आसक्तिहीन,हर्ष शोकादि द्वन्द्वों से रहित ,नित्य वस्तु परमात्मा 
में स्थित ,योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम योग है |) क्षेम को (प्राप्त वस्तु की रक्षा 
का नाम क्षेम है |)न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तः करण वाला हो ||४५||

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ||

अर्थ- सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य
 का जितना प्रयोजन रहता है ,ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त
वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ||४६||

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||

अर्थ - तेरा कर्म करने में ही अधिकार है ,उसके फलों में कभी नहीं | इसलिये तू कर्मों
 के फल का हेतु मात हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ||४७||

योगस्थः कुरु कर्मणि सङ्गंत्यक्त्वा  धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||

अर्थ - हे धनञ्जय तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि
वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर ,समत्व (जो कुछ भी कर्म किया
जायउसके पूर्ण होने और न होने तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ' समत्व ' है |)
ही योग कहलाता है ||४८||

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||

अर्थ  -इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है |इसलिये |
हे धनञ्जय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण
कर ; क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ||४९||

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्द्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||

 अर्थ - समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात्
उनसे मुक्त हो जाता है |इससे तु समत्व रूप योग में लग जा ;यह समत्व रूप योग ही

कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबन्ध से छूटने का उपाय है ||५०||

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||

  अर्थ -क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को
 त्यागकर जन्म रूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद
को प्राप्त हो जाते हैं ||५१||

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||
  
अर्थ - जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भली भाँति पार कर जायेगी ,उस
समय तू सुने हुए और सुनने आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी
भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ||५२||

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधानवचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||

अर्थ -भाँतिभाँतिके वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा
में अचल और स्थिर ठहर जायेगी ,तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तेरा
परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा ||५३||

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथद्वितीयोऽध्यायः ( ३१-३८ )




३१-३८ क्षात्र धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरुपण |

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि|
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ||

अर्थ-तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय
नहीं करना चाहिये ;क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढकर दूसरा कोई
कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ||३१||

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् |
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ||

अर्थ-हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार
के धर्म युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ||३२||

अथ चेत्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि |
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||

अर्थ- किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति
को खोकर  पाप को प्राप्त होगा || ३३ ||

अकीर्ति      चापि      भूतानि
कथयिष्यन्ति    तेव्ययाम् |
सम्भावितस्य  चाकीर्ति  -
र्मरणादतिरिच्यते        ||

अर्थ-तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और
माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ कर है ||३४||

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः|
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ||

अर्थ-और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त
होगा ,वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ||३५||

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ||

अर्थ - तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने
 योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ? ||३६||

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |
तस्मादुत्तिष्ठ  कौन्तेय  युद्धाय  कृतनिश्चयः ||

अर्थ - या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में
जीतकर प्रुथ्वी का राज्य भोगेगा | इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्ध के लिये
निश्चय करके खडा हो जा ||३७||

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||

अर्थ- जय - पराजय ,लाभ - हानि और सुख-दुःख को समान समझकर , उसके
बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा ; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ||३८ ||

रविवार, 7 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथद्वितीयोअध्यायः ( ११-३० )



११-३० साङ्ख्ययोग का विषय |

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता ||

अर्थ - श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन ! तु न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये
शोक करता है और पण्डितों के -से वचनों को कहता है ;परन्तु जिनके प्राण
चले गये हैंउनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ||११||

न त्वेवाहं जातुं नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||

अर्थ - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था,तू नहीं था अथवा ये राजालोग
 नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ||१२||

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||

अर्थ -जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था हो है ,वैसे
ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ;उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ||१३||

 मात्राश्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||

अर्थ- हे कुन्तीपुत्र !सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों
 के संयोग तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य हैं,इसलिये हे भारत ! उनको
 तू सहन कर ||१४||

 यं हि न व्यथयन्त्येते परुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||

अर्थ-क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख - सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष
 को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते ,वह मोक्ष के योग्य
होता है ||१५||

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः||

अर्थ- असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है |इस प्रकार
इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों  द्वारा देखा गया है ||१६||

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं तमम् |
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||

अर्थ-नाशरहित तो तू उसको जान ,जिससे ये संपूर्ण जगत् -दृश्य वर्ग व्याप्त है |इस
अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ||१७||

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||

अर्थ- इस नाशरहित ,अप्रमेय ,नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे
गये हैं | इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ||१८||

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||

अर्थ-जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है,वे
दोनोंही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और
न किसी के द्वारा मारा जाता है ||१९||

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||

अर्थ- यह आत्मा न तो किसी काल में भी तो  जन्मता है ,और न मरता ही है तथा न 
यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है ;क्योंकि यह अजन्मा ,नित्य,सनातन और 
पुरातन है;शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ||२०||

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् |
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||

अर्थ - हे पृथापुत्र अर्जुन !जो इस आत्मा को नाशरहित ,नित्य,अजन्मा और अव्यय 
जानता है,वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ?||२१||

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||

अर्थ- जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है ,
वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ||२२||

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||

अर्थ-इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट  सकते,इसको आग नहीं जला सकती ,इसको 
जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ||२३||

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽशोषय एव च |
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||

 अर्थ - क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है ,यह आत्मा अदाह्य ,अक्लेद्य और 
निःसंदेह अशोष्य है तथा यह  आत्मा नित्य,सर्वव्यापी,अचल ,स्थिर रहने 
वाला और सनातन है ||२४||

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमोच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||

अर्थ- यह आत्मा अव्यक्त है , यह आत्मा अचिन्त्य है और यह  आत्मा विकार 
रहित कहा जाता है | इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर
 तू शोक  करने को योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है ||२५||

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ-किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला
 मानता हो ,तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ||२६||

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ - क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे
 हुए का जन्म निश्चित है | इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने
 योग्य नहीं है ||२७||

 अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
अव्यक्तानिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||

अर्थ - हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने  के बाद भी 
अप्रकट हो जाने वाले हैं ,केवल बीच में ही प्रकट हैं ;फिर ऐसी स्थिति में क्या 
शोक करना है ? ||२८||

आश्चर्य वत्पश्यति कश्चिदेन -
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः |
आश्चर्यवच्चैनमन्यः  श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||

अर्थ-कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही
दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा
दूसरा कोई अधिकारी पुरुष इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई -कोई तो
सुनकर भी इसको नहीं जानता ||२९||

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य ( जिसका वध नहीं
किया जा सके ) है | इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य
नहीं है ||३०||

बुधवार, 3 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - साङ्ख्ययोग ,अथद्वितीयोऽध्यायः ( १ - १० )

 श्रीमद्भगवद्गीता साङ्ख्ययोग ,अथद्वितीयोऽध्यायः
१ - १०  अर्जुन की कायरता के विषय में श्रीकृष्णार्जुन - संवाद |
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ||

अर्थ-संजय बोले उस प्रकार  करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा
व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने
यह वचन कहा ||१||

श्रीभगवानुवाच 
 कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ||
   
अर्थ- श्री भगवान् बोले -हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह  मोह किस हेतु
 से प्राप्त हुआ है ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है ,न स्वर्ग को
देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है ||२||

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्द्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं तयक्त्वोतिष्ठ परन्तप ||

अर्थ-इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो ,तुझमे यह उचित
 नहीं जान पड.ती | हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध
के लिये खडा हो जा ||३||

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ||

अर्थ-अर्जुन बोले -हे मधुसूदन !मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से
भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लङूँगा ?क्योंकि हे अरिसूदन !
वे दोनों ही पूजनीय हैं ||४||

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्   ||

अर्थ-इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं भिक्षा का अन्न भी
खाना कल्याणकारक समझता हूं ;क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस
 लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा||५||

न चेतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखो धार्तराष्ट्राः ||

अर्थ -हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये यह युद्ध करना और न
करना-इन दोनों में से कौन सा श्रेष्ठ है ,अथवा ये भी नहीं जानते कि
उनको हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे |और जिनको मारकर हम
जीना भी चाहते ,वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे
मुकाबले में खडे हैं ||६||

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||

अर्थ- इसलिये कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के
विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित
कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये ;क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ,
इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ||७||

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्द्या-
द्द्ययच्छोकमुच्छोषणामिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावस पत्नमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ||

अर्थ-क्योंकि भूमि में निष्कण्टक ,धन-धान्य सम्पन्न राज्य और
देवताओं के स्वामिपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं
देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ||८||

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं बभूव ह ||

अर्थ-संजय बोले-हे राजन् ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी
 श्रीकृष्णमहाराज के प्रति इस प्रकार फिर श्रीगोविन्दभगवान् से
 'युद्ध नहीं करूँगा'यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ||९||

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||

अर्थ -हे भरतवंशी धृतराष्ट्र !अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों
सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से
यह  वचन बोले ||१०||