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बुधवार, 24 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथद्वितीयोऽध्यायः ( ३९-५३ )


३९-५३  कर्मयोग का विषय |

एषा तेऽभिहिता  साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु |
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ||

अर्थ- हे पार्थ ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषय में कही गयी और अब तू 
इसको कर्मयोग ए विषय में सुन -जिस बुद्धि से युक्त हु आ तू कर्मों के बन्धन 
को भली भांति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा ||३९||

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ||

अर्थ - इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उल्टा फलरूप
दोष भी नहीं है , बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा सा भी साधन जन्म मृत्यु 
रूपमहान भय से रक्षा कर लेता है ||४०||

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ||

अर्थ- हे अर्जुन ! इस कर्मयोग निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है ; किन्तु अस्थिर
 विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत ही भेदों वाली 
और अनन्त होती हैं  ||४१||

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः |
वेदवादरताः पार्थ  नान्यदस्तीति  वादिनः ||
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रिया विशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ||
भोगैश्वर्य प्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||

अर्थ -हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं ,जो कर्मफल के प्रशंसक वेद वाक्यों
 में ही प्रीति रखते हैं ,जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग 
से बढकर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है - जो ऐसा कहने वाले हैं ,वे अविवेकीजन इस
 प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाउ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि 
 जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार
 की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ,उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर 
लिया गया है ,जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं ; उन पुरुषों की परमात्मा
 में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती है ||४२-४४||

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्य भावार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||

अर्थ - हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों 
एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं ; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके 
साधनों में आसक्तिहीन,हर्ष शोकादि द्वन्द्वों से रहित ,नित्य वस्तु परमात्मा 
में स्थित ,योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम योग है |) क्षेम को (प्राप्त वस्तु की रक्षा 
का नाम क्षेम है |)न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तः करण वाला हो ||४५||

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ||

अर्थ- सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य
 का जितना प्रयोजन रहता है ,ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त
वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ||४६||

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||

अर्थ - तेरा कर्म करने में ही अधिकार है ,उसके फलों में कभी नहीं | इसलिये तू कर्मों
 के फल का हेतु मात हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ||४७||

योगस्थः कुरु कर्मणि सङ्गंत्यक्त्वा  धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||

अर्थ - हे धनञ्जय तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि
वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर ,समत्व (जो कुछ भी कर्म किया
जायउसके पूर्ण होने और न होने तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ' समत्व ' है |)
ही योग कहलाता है ||४८||

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||

अर्थ  -इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है |इसलिये |
हे धनञ्जय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण
कर ; क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ||४९||

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्द्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ||

 अर्थ - समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात्
उनसे मुक्त हो जाता है |इससे तु समत्व रूप योग में लग जा ;यह समत्व रूप योग ही

कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबन्ध से छूटने का उपाय है ||५०||

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||

  अर्थ -क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को
 त्यागकर जन्म रूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद
को प्राप्त हो जाते हैं ||५१||

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||
  
अर्थ - जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भली भाँति पार कर जायेगी ,उस
समय तू सुने हुए और सुनने आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी
भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ||५२||

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधानवचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||

अर्थ -भाँतिभाँतिके वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा
में अचल और स्थिर ठहर जायेगी ,तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तेरा
परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा ||५३||

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