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मंगलवार, 31 मार्च 2015

श्रीमद्भगवद्गीता , अथ चतुर्थोऽध्यायः (२४ - ३२)

२४ - ३२  फल सहित प्रथक् - पृथक् यज्ञों का कथन |

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||

 अर्थ - जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म
 है  तथा ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है उस ब्रह्मकर्म
 में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है || २४||

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते |
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यग्येनैवोपजुह्वति ||

अर्थ - दूसरे योगीजन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और
अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में अभेददर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ
के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं ( परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव
से स्थित  होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करना है । ) ॥२५॥

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति |
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ||

अर्थ  - अन्य योगी जन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं
 और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं || २६||

सर्वानीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥

अर्थ - दूसरे योगीजन इन्द्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित
आत्मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का
भी न चिंतन करना ही उन सबका हवन करना है । )॥ २७॥

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।।

अर्थ - कई पुरुष द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं , कितने ही तपस् या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने
ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं ,कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ
करने वाले हैं ॥२८॥

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे |
 प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||
अपरे नियताहाराः प्रानान्प्राणेषु जुह्वति |
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ||

अर्थ - दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं ,वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में
अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण
और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं |ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों
का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं || २९-३०||

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ||

अर्थ - हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञ  बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा
को प्राप्त होते हैं | और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिये तो यह मनुष्य लोक भी सुख दायक नहीं है ,फिर
 परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ?|| ३१||

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणों मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।।

अर्थ - इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं | उन सबको तू  मन ,इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान , इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू  कर्म
बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा || ३२||

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ||

अर्थ - हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है , तथा यावन्मात्र संपूर्ण कर्म ज्ञान
में समाप्त हो जाते हैं ||३३ ||