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सोमवार, 28 सितंबर 2015

स्त्रियों की क्षमता का उचित प्रयोग

क्या स्त्रियों की क्षमता का उचित प्रयोग होता है ?

एक स्वस्थ,शिक्षित ,सक्षम ,और कुशल स्त्री सभी क्षेत्रों में अपने आपको साबित कर ही लेती है और समाज में यही उसका सबसे बड़ा योगदान है । पारिवारिक ,सामाजिक,राजनैतिक या आर्थिक कोई भी कार्य हो स्त्री अपनी कुशलता से इन सबमें सामंजस्य बना ही लेती है । वहीं यदि वह चूल्हे ,चौके तक सिमित रह गई और उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने में अपनों ने उसका सहयोग न किया तो समाज के विकास में बहुत हानि
होगी ।समाज में पुरुष  के साथ कंधे  कंधा मिलाकर  चलने के लिए अगर स्त्री का साथ मिल जाए तो  चक्र दुगनी गति  से घूमने लगेगा ।
वैसे तो ये सब कहने में और सुनने में बहुत अच्छा लगता है परन्तु अभी भी हम उस स्थिति से बहुत अधिक दूर है । स्त्री की वर्तमान स्थिति दयनीय भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी । आज आधी आबादी स्त्रियों की है , सबसे बड़ा निर्वाचन क्षेत्र उनका है , करीब ४० करोड़ मतदाताओं का वोट बैंक है । आज स्त्रियों को समानता का अधिकार मिले हुए छः दशक बीत चुके हैं । बावजूद इन सबके स्त्रियों को आज भी असमानता और अन्याय से मुकाबला करना पड़ता है ।  कई  सारे बंधनों से स्त्री का शरीर और मन जकड़ा हुआ है और विडम्बना देखिये कि  आज भी इस अनीति को बदलने की जगह उसे स्वाभाविक माना जा  रहा है । इस स्थिति को बदलने के लिए किसी भी वर्ग में कुछ ख़ास उत्सुकता नहीं दिखाई देती । इतने महत्त्व पूर्ण पक्ष को भी किसी ना किसी स्वार्थ की आड़ में अनदेखा किया जा रहा है ।
 यहाँ पर यह बिलकुल भी नहीं कहा जा रहा है की स्त्रियों को प्रगतिशील बनाने के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे कार्य करने ही चाहिए ,किन्तु उन्हें हर तरह से स्वावलम्बी बनने देने में कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए । परम्परा और रूढ़ियों के नाम पर उन्हें घर के पिंजरे में कैद कर देना ,उचित नहीं है । मध्यकालीन युग के कुछ सौ वर्षों के अंधकार युग को छोड़कर भारतीय समाज में स्त्री कभी भी प्रतिबंधित नहीं रही है । स्त्री का वर्तमान पिछड़ापन स्वाभाविक नहीं है बल्कि थोपा हुआ है ।
आज स्त्री को स्वयं आवाज उठानी होगी ,उसे अपने लिए खुद लड़ना होगा और उसके लिए उसे अवसर तभी मिलेंगे जब घर के कामों को करने में घर के सभी लोग सहयोग दें । घर के काम लगते तो बहुत छोटे और थोड़े से हैं परन्तु बहुत होते है । उन्हें ख़त्म करने में स्त्री को २४ घंटे भी काम ही जान पड़ते हैं कभी तो यह लगने लगता है की यदि रात्रि न होती तो स्त्री के काम भी २४ घंटे चलते ही रहते । अच्छा यही रहता है कि सभी को थोड़े - थोड़े कार्यों को मिल बाँट कर हँसते - हँसाते समाप्त करवाना चाहिए ।एक साथ काम करना और एक साथ भोजन करना कितना उत्साहवर्धक होता है इसका अनुभव आपको अवश्य ही करना चाहिए । वैसे तो यह बहुत ही छोटा सा परिवर्तन है परन्तु इसकी नियमितता से सभी का आपसी प्रेम और सामंजस्य और भी प्रगाढ़ होगा । और स्त्री को अपने लिए भी कुछ समय मिल जाएगा ।
परिवार की पाठशाला में सादगी मितव्ययता ,स्वच्छता ,और सहयोग जैसे विचारों का आदान - प्रदान तभी संभव होगा जब घर के सभी लोग प्रत्येक गतिविधि में भाग लें । यहाँ बात पुरुष को रोटी बनाना सिखाना या कोई अन्य काम सिखाने की नहीं है बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य घर के प्रत्येक सदस्य को वे गुण सीखाना है जो भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण सफलताओं के आधार बन सकते हैं ।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

३३ -४२ ज्ञान की महिमा

३३ -४२ ज्ञान की महिमा 
श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तपः ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
अर्थ -हे परंतप  अर्जुन !द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है ,तथा
यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ॥३३॥

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||
अर्थ-उस ज्ञान को तु तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ ,उनको भलीभाँति
दंडवत प्रणाम करने से ,उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक
प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस
तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ॥३४॥

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषणे द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
अर्थ -जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन !
जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (सर्वव्यापी
अनंत चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबमें
समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण
भूतों को आत्मा कल्पित देखता है )और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा
में देखेगा ( जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्म रूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक
देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है ,उसके लिए मै
अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।) ॥३५॥

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
अर्थ-यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है ;तो भी तू ज्ञानरूप
 नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ॥ ३६ ॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्म्सात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||
अर्थ-क्योंकि हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है ,वैसे
ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ॥ ३७॥

न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः  कालेनात्मनि विन्दति ॥
अर्थ -इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस
ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तः करण हुआ मनुष्य अपने आप
ही आत्मा में पा लेता है ॥ ३८ ॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
अर्थ- जितेन्द्रिय साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान
को प्राप्त होकरवह बिना विलम्ब के -तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त
हो जाता है ॥ ३९ ॥

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः||
अर्थ-विवेकहीन और श्रद्धारहित संशय युक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है |
ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है ,न परलोक है ओर न सुख ही है ॥ ४०॥

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् |
 आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ||
अर्थ-हे धनञ्ज्य !जिसने कर्मयोग कि विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा मे अर्पण कर
 दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,ऐसे वश में किये हुए
अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते ॥ ४१॥

तस्मादज्ञानसम्भूतं ह्रत्स्थं ज्ञानासि नात्मनः ।
 छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
अर्थ-इसलिए हे भारतवंशी अर्जुन!तू ह्रदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का
विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्त्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध
 के लिए खड़ा हो जा ॥ ४२॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो  नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥




 

शनिवार, 5 सितंबर 2015

शिक्षक और शिक्षार्थी

विश्वशिक्षाविदों के अनुसार बच्चों में पनपने वाली कुण्ठा का यह एक प्रमुख कारण है जिसके  परिणामस्वरूप  व्यक्ति  अपराध की ओर बढ़ने लगता है ।शिक्षा शब्द का उच्चारण होते ही इसके दो परिपार्श्व अर्थात दो समानांतर सन्दर्भ तुरंत ही सामने आ जाते हैं । एक है शिक्षक और दुसरा है शिक्षार्थी ।दोनों ही भगवान के स्वरूप हैं और दोनों को दोनों के रूपों का यथार्थ बोध हुए बिना शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य प्राप्त नहीं होगा ।

शिक्षा कैसी हो ?समस्त संसार में जब भी इस विषय पर विचार -विमर्श होता है तब सभी यही सोचते हैं की शिक्षा ऐसी हो जिसके माध्यम से मनुष्य प्रकृति और अपने साथियों के साथ अत्यधिक निकट सम्बन्ध स्थापित कर सके ,पेड़ - पौधे तथा उन सभी वस्तुओं के प्रति अधिक व्यापक दृष्टिकोण बना सके ,जो इस संसार को रहने के योग्य बनाता है । हमारी परम्पराओं की जो बातें ऐसा दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक हैं  उन्हें निःसंदेह ही हमें अपनानी चाहिए साथ ही नया ज्ञान प्राप्त करना दायित्त्व  है।

हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली अनुपयोगी हो गई है।यह प्रणाली मुख्यतया पश्चिम से अनुप्राणित है।यह व्यक्ति विशेष के विकास पर बल देते हुए केवल उपाधि पाने का अथवा रोजगार के लिए अन्य शर्तों को पूरा करने का माध्यम मात्र रह गई है। परन्तु वर्त्तमान शिक्षा पद्धति की भी हम निंदा नहीं कर सकते क्योंकि अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी इसने अनेक वैज्ञानिक शिक्षाविद् एवं बड़ी 2 संख्या में होनहार व्यक्तियों का निर्माण किया है। वर्तमान शिक्षा पद्धति मैं प्रकार के परिवर्तनों की आवश्यकता है जोसभी की आवश्यकताओं को पूरा  कर सके । शिक्षा को हमारी सामाजिक जीवन पद्धति के अनुरूप बनाया जाना चाहिए। पाठ ऐसे हों जो जीवन और परिस्थितियों से सम्बंधित हो जिससे छात्रों में प्रेरणा का उदय हो कि वो जीवन भर दूसरों से सिखाते रहें।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

संस्कृत शिक्षणं


Image result for sanskrit educationसंस्कृते नवीनतं शिक्षणं विधीनां प्रयोगः कर्तव्यः | संभाषणं शिविराणां प्रायोजितयां च आयोजनं भवेत् | संस्कृत भाषापि अन्य भाषावत् एव शिक्षायाः अभिन्न अङ्गं मन्तव्यम् | संस्कृतमेव यादृशी भाषा अस्तिया ज्ञानकर्मयोः च सामञ्जस्यं स्थापयति |सास्कृत शिक्षणाय प्रक्रियायाः समये - समये गतिशीलतायाः परीक्षणे विधानं कर्तव्यम् |

संस्कृत भाषा अस्माकं प्राचीनतम्  इतिहासः वर्तमानेन सः संयोजयति तथा भविष्यस्य मार्गं प्रशस्यं करोति | विज्ञानात् पूर्वं ज्ञानोत्पत्ति भूतवति ,एतद् ज्ञानं संस्कृते निहितम् अस्ति |जनपद ग्रामीण स्तरेषु संस्कृत शिक्षणं प्रति जागरुकतायाः कृते प्रयत्नो विधीयः | निष्ठावन्तः तथा परिश्रमीः छात्र छात्रायाः एके भूयः सस्कृतं प्रतिष्ठापयेयुः |सर्वकारः एव करिष्यते इत्थमेव न चिन्तनीयम् | भारतीय संस्कृतेः रक्षकानाम् आदर्श संस्कृत शिक्षण संस्थानां कृत्वा तेषां मानकानि प्रस्तोतव्यानि |