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शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

३३ -४२ ज्ञान की महिमा

३३ -४२ ज्ञान की महिमा 
श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तपः ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
अर्थ -हे परंतप  अर्जुन !द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है ,तथा
यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ॥३३॥

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ||
अर्थ-उस ज्ञान को तु तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ ,उनको भलीभाँति
दंडवत प्रणाम करने से ,उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक
प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस
तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ॥३४॥

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषणे द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
अर्थ -जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन !
जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (सर्वव्यापी
अनंत चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबमें
समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण
भूतों को आत्मा कल्पित देखता है )और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा
में देखेगा ( जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्म रूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक
देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है ,उसके लिए मै
अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।) ॥३५॥

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
अर्थ-यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है ;तो भी तू ज्ञानरूप
 नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ॥ ३६ ॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्म्सात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||
अर्थ-क्योंकि हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है ,वैसे
ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ॥ ३७॥

न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः  कालेनात्मनि विन्दति ॥
अर्थ -इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस
ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तः करण हुआ मनुष्य अपने आप
ही आत्मा में पा लेता है ॥ ३८ ॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
अर्थ- जितेन्द्रिय साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान
को प्राप्त होकरवह बिना विलम्ब के -तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त
हो जाता है ॥ ३९ ॥

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः||
अर्थ-विवेकहीन और श्रद्धारहित संशय युक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है |
ऐसे संशय युक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है ,न परलोक है ओर न सुख ही है ॥ ४०॥

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् |
 आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ||
अर्थ-हे धनञ्ज्य !जिसने कर्मयोग कि विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा मे अर्पण कर
 दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,ऐसे वश में किये हुए
अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते ॥ ४१॥

तस्मादज्ञानसम्भूतं ह्रत्स्थं ज्ञानासि नात्मनः ।
 छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
अर्थ-इसलिए हे भारतवंशी अर्जुन!तू ह्रदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का
विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्त्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध
 के लिए खड़ा हो जा ॥ ४२॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो  नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥




 

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