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सोमवार, 11 अगस्त 2014

तुलसीदासकृत रामचरितमानस : क्या रामचरितमानस में नारी जाति का अपमान है ?

क्या रामचरितमानस में नारी जाति का अपमान है ?

ढोल गंवार सूद्र पसु नारी | सकल ताड.ना के अधिकारी ||

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कुछ लोग इस चोपाई को लेकर श्रीगोस्वामी के ऊपर यह आक्षेप किया करते हैं कि उनके ह्रदय में स्त्रियों तथा सुद्रों के प्रति अच्छे भाव नहीं थे ;अतः इस पद के यथार्थ भाव को स्पष्ट कर देना आवश्यक जान पड.ता है |श्रीगोस्वामीजी के हस्तलिखित मानस-बीज की चतुर्थ प्रति के अनुसार जो श्रीवेण्कटेश्वर प्रेस से सं .१९५२ वि.में छपी थी ,'सूद्र ' पाठ न होकर 'छुद्र ' पाठ मिलता है,परन्तु दूसरी प्रतियों के अनुसार यहां 'सूद्र ' ही पाठ माना जाये
तो भी कोई विशेष आपत्ति नहीं है ,क्योंकि यहां तो भाव ही दूसरा है पहले तो ये वचन समुद्र द्वारा अपने अपराधों की क्षमा -भिक्षा के लिये कहे गये हैं ,

जैसे ----
सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे |छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ||
गगन समीर अनल जल धरनी | इन्ह कइ नाथ सहज जड. करनी ||
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही |मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ||
ढोल गवांर सूद्र पसु नारी | सकल ताड.ना के अधिकारी ||
तात्पर्य यह है कि यह उक्ति स्वयं गोस्वामीजी की नहीं है ,बल्कि एक अपराधी पात्र समुद्र के मुख से उसकी क्षुद्रता तथा गंवारपने के पश्चाताप के रूप में कही गयी है |यहां कोई आदर्श नहीं उपस्थित किया गया है ,केवल साधारण रीति नीति के द्वारा स्वभाव -कथन हुआ है | ''अधिकारी '' शब्द पर भी विचार करने से यह भाव कदापि नहीं प्रकट होता कि शुद्रों ,गंवारों ,पशुओं तथा स्त्रियों को पीटना ही चाहिये ,क्योंकि यहां ''ताड.ना '' कर्तव्य रूप में नहीं है ,बल्कि अधिकार रूप में है |शिक्षक को अधिकार होता है कि शिष्यों को--बालकों की ताड.ना करे ,परन्तु वह अधिकार मात्र ही होता है |शिक्षक तो उसका प्रयोग तभी करता है जब शिष्य - बालक के हित के लिये उसकी आवश्यकता पड.ती है |अधिकार ओर कर्तव्य दोनों एक नहीं | कर्तव्य का पालन तो आवश्यकओर अनिवार्य होता है ,परन्तु अधिकार के विषय में बात नहीं ,उसका तो आवश्यकता पड.ने पर प्रयोग होता है|तात्पर्य यह है -- यदि आवश्यकता पडे.तो इनको ताड.ना देकरसत्पथ पर लाना अनुचित नहीं होता| अतः उपर्युक्त पद का अभिप्राय कदापि यह नहीं हो सकता कि जो लोग अच्छे हों ,उन्हें भी व्यर्थ ताड.ना दी जाए | जिन व्यक्तियों के सुधार की आवश्यकता है, वे ताड.ना द्वारा निर्दोष बनाये जाने  के अधिकारी हैं , गंवार ओर शूद्र भी बडे. साधु ,महात्मा तथा सत्प्रकृति के होते हैं ,कितने पशु परम शान्त तथा प्रशंसनीय प्रकृति के होते हैं
,स्त्रियों में असंख्य पूज्य देवियां पाई जाती हैं ;तो क्या ये सभी ताडना  के अधिकारी हैं ? कदापि नहीं ! उस ढोल को कसने की जरूरत नहीं जिसका स्वर स्वयं ही सही है |  ''ताडना ''शब्द का तात्पर्य भी केवल शासन तथा शिक्षा ही है ; उन्हें दुःख देने के उद्देश्य से मारना -पीटना इसका कदापि अभिप्राय नहीं | यहां तो  ''ताड.ना ''शब्द का अभिप्राय उक्त पांचों व्यक्तियों के हितार्थ उन्हें शिक्षा देना ही होगा | रोष ,अमर्ष अथवा वैरभाव का प्रवेश यहां नहीं हो सकता |''अधिकारी ''शब्द से अपने हितैषी एवं निजत्त्व रखने वाले व्यक्ति ही अभिप्रेत हो सकते हैं | अन्य कोई मनुष्य जो किसी प्रकार का सम्बन्ध ही न रखता हो ,उसे ताड.ना देने का अधिकार कैसे हो सकता है ? क्योंकि अधिकार अपनी ही
वस्तु पर होता है ,अन्य का अन्य की वस्तु पर अधिकार संभव नहीं |''ताड.ना'' शब्द से यही ध्वनि निकलती है कि केवल उनके सुधारमात्र के लिये दण्ड प्रयोजनीय है |जैसे ढोल को इस प्रकार हिसाब से कसना तथा ठोकाना होता है ,जिससे वह सुरीली आवाज दे सके ;इतने जोर से ठोका तथा कसा जाता है कि वह बेकार [ बेकाम ] हो जाए |ढोल को ताड.ना देने का मतलब यह नहीं समझा जाता कि उसको उठा कर पटक दिया जाए कि जिससे वह चूर - चूर हो जाए अथवा किसी शस्त्र के आघात से उस पर चढि हुइ खाल को अलग कर दिया जाए |इसी प्रकार गंवार तथा क्षुद्र मनुष्यों को डरा - धमका कर सद्गुणी बनाना तथा बुद्धिमान बनाना ही यहां अभिप्राय हो सकता है न की उन्हें व्यर्थ पीटना अथवा मानहानि करना |पशुओं को भी लोग उतना ही डाटते हैं तथा भागने से रोकते हैं जितना कि उन्हें सुरक्षित रखने के लिये आवश्यक होता है ;निष्प्रयोजन उन्हें कोई नहीं पीटता ओर न ही इस प्रकार पीटने का किसी को अधिकार ही हो सकता है |इसी प्रकार स्त्रियों को स्वेच्छाचारिणी न होने देना ही यहां अभिप्रेत है ,जिससे वे शान्त ,गम्भीर स्वभाव वाली तथा सदाचारिणी बनी रहें |नारियों के लिये स्वेच्छाचारिणी होना सबके मत से दोषपूर्ण है|श्रीमानस में स्वयं भगवान् के श्री मुख से निकलता है---

 ''जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारी |''

तथा मनुस्मृति में भी कहा है --
''बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत पाणिग्राहस्य योवने |
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम् ||''
अर्थात् स्त्री जब बालिका होती है तब पिता के अधीन होती है ,जब योवन अवस्था होती है तब पति के अधीन होती है तथा पति के न रहने पर पुत्रों के अधीन रहती है| अतएव स्त्रियां सदा रक्षणीया होती हैं -यही नारी के प्रति ताड.ना का हेतु है,उन्हें अपमानित करना या कष्ट पहुंचाना कभी अभिप्रेत नहीं हो सकता | इस ''ताड.ना'' शब्द में स्वयं उनका हित ही सूचित है |यदि वे इस प्रकार ताड.ना द्वारा शिक्षित तथा शासित न होंगी तो उनकी उपयोगिता जाती रहेगी |तथा वे स्वयं तो बेकाम हो ही जाएंगी ,संसार में भी यत्र -तत्र तिरस्कार का ही पात्र उन्हें बनना पडे.गा |अतः जो काम हित की दृष्टि से हो रहा हो ,उसमें द्वेष् की भावना को खोजना ठीक नहीं | श्रीमानस में कहा है ---
''जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई |मातु चिराव कठिन की नाई ||
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर |
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर||''
इसके अनुसार प्रस्तुत विषय में द्वेषभाव की कोइ गुन्जाइश नहीं | श्रीमद्गोस्वामीजी ने तो ''नानापुराणनिगमागसम्मतम''ही कथन करने का संकल्प किया था ओर वही श्रीरामायण मे हम पाते हैं |
अतः श्रीगोस्वामीजी पर ही क्यों आक्षेप किया जाए ? यदि श्रीग्रन्थकार का स्त्रियों के प्रति एसा भाव होता तो उसी ग्रन्थ में हमें श्रीजगज्जननी सीता के पुनीत दिव्य चरित का दर्शन कैसे होता ? कोसल्या ,सुमित्रा ,आदि पूजनीय नारियों के दिव्य आदर्श भी हम वहां कैसे पाते ? शबरी ,त्रिजट आदि नीच जाति की स्त्रियों को उनकी भक्ति भावना के कारण श्रीगोस्वामीजी ने अपनी रामायण में वह स्थान दिया जो मुनियो को भी दुर्लभ है | राक्षसराज रावण की पत्नी मन्दोदरी के सतीत्व ओर पातिव्रत तथा बाली की स्त्री तारा के परम पुनीत चरित्र ,जो श्रीरामचरितमानस में वर्णित है , पढ.कर भी कोई कैसे आक्षेप कर कर सकता है ? विचारवान् पुरुष को ग्रन्थकार के उद्देश्य को देखकर तथा ग्रन्थ के अनुबन्ध -चतुष्टय पर विचार करके ही ग्रन्थकार के मत के विषय में टीका -
टीप्पणी करनी चाहिये ,अन्यथा आलोचनाक| मूल अभिप्राय ही नष्ट हो जायेगा ,फिर ग्रन्थ के विषय में जो कुछ शङ्का होगी वह निज के हार्दिक भावों को ही प्रकट करेगी |बस ,यही जिज्ञासुजनों की सेवा में मेरा निवेदन है | {मानस -शङ्का -समाधान} जयरामदास ' दीन '----गीताप्रेस , गोरखपुर

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