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शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

मेरा लेख - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ............

मेरा लेख-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ...........

यत्र  नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः |
यतैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ||
अर्थात् मनुस्मृति में नारी की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि - जहाँ नारियों की
 पूजा होती है वहाँ देवताओं का निवास होता है , जहाँ इनका आदर नहीं होता है अथवा इनका
अपमान होता है , वहाँ सारे धर्म - कर्म निष्फल हो जाते हैं ।
नारी पुरुष की पूरक सत्ता है । वह मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है उसके बिना पुरुष अपूर्ण है । 
नारी ही उसे पूर्णता देती है । पुरुष के उजड़े हुए उपवन को नारी ही पल्लवित बनाती है। संसार 
का प्रथम मानव भी जोड़े के रूप में धरती पर अवतरित हुआ था । संसार की सभी पौराणिक 
कथाओं में इसका उल्लेख है । मनुस्मृति में उल्लिखित है कि -
द्विधा कृत्वाऽऽत्मनस्तेन देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् |
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः ||
अर्थात् उस हिरण्यगर्भ ने अपने शरीर के दो भाग किये आधे से पुरुष और आधे से स्त्री का 
निर्माण हुआ ।
 वैसे तो स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पुरक हैं फिर भी कर्त्तव्य , उत्तरदायित्व तथा त्याग के 
कारण पुरुष से नारी कहीं अधिक महान है । नारी जीवन यात्रा में पुरुष के साथ ही नहीं चलती
 वरन समय आने पर उसे शक्ति और प्रेरणा भी देती है । नारी की वाणी जीवन के लिए अमृत 
स्रोत है । उसके नेत्रों में करुणा , ममता और सरलता के दर्शन होते हैं । नारी की हँसी में संसार
 की निराशा और कड़वाहट मिटाने की अपूर्व क्षमता है। 
 संसार के सभी महापुरुषों ने नारी में उसके दिव्य स्वरूप के दर्शन किये हैं ,जिससे वह पुरुष के 
लिए पुरक सत्ता के ही नहीं बल्कि उर्वर भूमि के रूप में उसकी उन्नति ,प्रगति एवं कल्याण का 
साधन बनती है । नारी जन्मदात्री है । संसार का प्रत्येक भावी मनुष्य नारी की गोद में ही खेल -
कूद कर बड़ा होता है । कवि जयशंकर प्रसाद जी नारी के प्रति श्रद्धा रखते थे । कामायनी में
उन्होंने लिखा है -
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विशवास रजत नभ - पग  - तल में । 
पीयूष स्रोत - सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में ॥ 
हमारे समाज में स्त्री  का क्या महत्त्व है । इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि 
वह जननी है । यदि जननी न हो तो कैसे संसार का उद्भव होगा और कैसे समाज का सृजन
 होगा ? 
प्राचीन काल से ही नारियाँ घर - गृहस्थी को ही नहीं देखती आ रहीं हैं बल्कि समाज , राजनीति
 धर्म , कानून , न्याय , सभी क्षेत्रों में वो पुरुषों की संगिनी , सहायक तथा प्रेरक भी रही हैं । नारी 
अपने विभिन्न रूपों में सदैव मानव जाति के लिए त्याग बलिदान ,स्नेह ,श्रद्धा ,धैर्य ,सहिष्णुता
 का जीवन बिताती है । माता पिता के लिए आत्मीयता ,सेवा की भावना जितनी पुत्री में है वैसी 
अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती । बेटियों को पराया कहा जाता है लेकिन पराये घर जाकर
 भी पुत्री अपने माँ -बाप से कभी अलग नहीं हो सकती । उसमें परायेपन की भावना कभी नहीं 
आती ,उसके हृदय में वही सम्मान ,सेवा की भावना भारी रहती है । बहन के रूप में भी वह सदैव
 अपने भाईबहन के हित की ही कामना करती है । 
माँ तो माँ ही है । बच्चे के हित की चिंता ,उसका भला सोचने वाला माँ के समान संसार में कोई 
नहीं है । संसार के सब लोग मुँह मोड़ लें किन्तु एक माँ ही ऐसी होती है जो अपने पुत्र के लिए 
सदा सर्वदा सब कुछ करने के लिए तैयार रहती है । 
पत्नी के रूप में नारी पुरुष की जीवन संगिनी ही नहीं होती वह सब प्रकार से पुरुष का हित साधन
 करती है । शास्त्रकार ने भार्या को छः प्रकार से पुरुष के लिए हित साधक बतलाया है -
कार्येषु मंत्री ,कर्णेषु दासी ,भोज्येषु माता ,रमणेषु रम्भा । 
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री ,भार्या च षड्गुणवती च दुर्लभा ॥
अर्थात कार्य में मंत्री के सामान कार्य करने वाली ,भोजन कराने में माता के समान पथ्य देने 
वाली ,आनन्दोपभोग के लिए रम्भा के समान धर्म और क्षमा को धारण करने में पृथ्वी के 
समान क्षमाशील ऐसे छः गुणों से युक्त स्त्री सचमुच एक दुर्लभ रत्न है । 
हमारा समाज नारी और पुरुष के सहयोग से ही बनता है । घर बसाना ,परिवार चलाना और 
उसकी व्यवस्था रखना नारी के हाथ में ही है ।यदि वह अपने इस दायित्त्व से विमुख हो
जाए अथवा उपेक्षा बरतने लगे तो कुछ ही समय में यह व्यवस्थित दिखाई देने वाला
 समाज अस्त व्यस्त दिखाई देने लगेगा । सृष्टि से लेकर समाज का संचालन क्रम
मुख्यतः नारी पर ही निर्भर है ।
जो स्त्री निर्माणक तथा पालन करने वाली है , यदि वह अपने तन मन से प्रसन्न रहेगी तो
उसकी सृष्टि भी उसी प्रकार से प्रफुल्लित और प्रसन्न होगी ।  बुद्धिमानी इसी में है कि हम
 नारी का समुचित आदर करते हुए उसे प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते रहें ।
भारत के अतीतकालीन गौरव में नारियों का बहुत अंशदान रहा है । उस समय माँ संतान को
बड़े उत्तरदायित्त्व पूर्ण ढंग से पालती थी । किन्तु वह अपने इस दायित्व को निभा तब ही
सकी ,जब उसको स्वयं अपना विकास करने का अवसर दिया गया है । जिस नारी का स्वयं
 अपना विकास नहीं हुआ हो वह स्त्री विकासशील समाज का निर्माण कैसे करेगी ? स्त्रियाँ
अपने इस दायित्त्व को पूरी तरह से निभा पायें इसके लिए आवश्यक है कि स्त्री को सारे
शैक्षणिक एवं सामजिक अधिकार समुचित रूप से दिए जाएं ।
प्राचीन काल में स्त्रियों के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी । समाज में आने जाने और
गतिविधियों में भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता थी । यज्ञ में होता ऋत्विज के रूप में बैठती थीं
और धर्म ,कर्म में हाथ बँटाती हुई तत्त्व दर्शन किया करती थीं ।यही  कारण है की वे गुण,
कर्म स्वभाव में पुरुषों के सामान ही उन्नत हुआ करती  थीं और इसी कारण उनकी संतान
भी गुणवती होती थी ।
जब तक समाज में इस प्रकार की मंगल परंपरा चलती रही ,समाज में सुख शान्ति
और सम्पन्नता बनी रही , किन्तु जैसे ही इस परम्परा में व्यवधान आया नारी को
 उसके आवश्यक अधिकारों से वंचित किया गया , समाज का पतन होना प्रारम्भ
 हो गया और जैसे - जैसे नारी को दयनीय बनाया जाता रहा , समाज अधोगति
को प्राप्त होता गया ।
वेद आर्य जाति की आधारशिला है । मनु ने वेदों को सारे ज्ञानों का आधार मानकर
उन्हें सर्वज्ञानमय कहा है । वैदिकयुगीन स्त्री शिक्षा उच्चतम शिखर पर थी । लम्बे
समय तक परिवार ही एकमात्र शिक्षण संस्था थी । बालक एवं बालिकाएं परिवार में
ही शिक्षा ग्रहण करते थे । अनेक महिलाएं अध्यापिकाओं का जीवन व्यतीत करतीं
थीं । ऐसी महिलाएं उपाध्याया कही जातीं थीं ।
वेदों में नारी के गौरव का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है नारी को ज्ञान विज्ञान में
निपुण होने के कारण ब्रह्मा बतलाया गया है । ऋग्वेद में स्त्री को परिवार की स्वामिनी
महारानी कहा गया है -
साम्राज्ञी श्व्शुरे भव साम्राज्ञी स्वाश्र्वां भव । 
ननान्दरी साम्राज्ञी भव साम्राज्ञी अधि देवृषु ॥
नारी का सहयोग मानव - जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है । आवश्यकता इस बात
 की है कि हम नारी को समाज में वही स्थान वही प्रतिष्ठा दें जिसकी आज्ञा हमारे ऋषियों
मनीषियों ने दी है । उसे सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ाएं । स्त्री जीवन यात्रा में हमारे लिए बोझ न
 होकरहमारी सहयोगिनी और सहायक सिद्ध होगी । तब हमें स्त्री के भविष्य को लेकर चिंतित
नहीं होना पड़ेगा ।
श्रीराम के जीवन में सीता न हो तो रामायण में कुछ नहीं रहा जाता , द्रौपदी , कुंती , गांधारी,
आदि का चरित्र निकाल देने पर महाभारत की गाथा कुछ नहीं रह जाती ,पाण्डवों का जीवन
संग्राम अपूर्ण रह जाता है । शिवा के साथ पार्वती ,कृष्ण के साथ राधा श्रीराम के साथ सीता ,
विष्णु के साथ लक्ष्मी का नाम हटा दिया जाए तो इनकी लीला ,गाथा ,इनका चरित्र अधूरे
रह जाते हैं ।
अतः हम स्त्री की महानता को समझ सकते हैं । स्त्री समाज का केंद्र बिंदु है ।

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