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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता , अथतृतीयोऽध्यायः ( २५-३५ )


२५-३५ अज्ञानी और ज्ञानवान् के लक्षण तथा राग - द्वेष से रहित होकर 
कर्म करने के लिये प्रेरणा |

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ||

अर्थ-हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं ,आसक्ति
रहित विद्वान भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ||२५||

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ||

अर्थ - परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह  शास्त्रविहित
कर्मों में आसक्तिवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे ।किन्तु
 स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली भाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे॥२६॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

अर्थ - वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तः
करण अहंकार से मोहित हो रहा है ,ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ ' ऐसा मानता है ॥२७॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

अर्थ -परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग (१.त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और
मन ,बुद्धि ,अहंकार ,तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ,पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय - इन सबके
समुदायका नाम 'गुणविभाग 'है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्मा विभाग है ' है ।)
के तत्त्व ( उपर्युक्त 'गुणविभाग' और 'कर्मविभाग ' से आत्मा को पृथक अर्थात निर्लेप जानना ही
इनका तत्त्व जानना है । ) को जानने वाला ज्ञानयोगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ,ऐसा
समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ॥२८॥

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ||

अर्थ - प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं , उन
पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे||२९||

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्य स्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||

अर्थ - मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके
आशारहित ,ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर ||३०||

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः  ||

अर्थ -जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण
करते हैं  , वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं ||३१||

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तन्विद्धि नष्टानचेतसः ||

अर्थ -परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं , उन
मूरर्खों को तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ||३२||

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानापि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||

अर्थ -सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं | ज्ञानवान
 भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है | फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ?||३३||

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्चेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||

अर्थ -इन्द्रिय - इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं |
मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होने चाहिये ,क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने
वाले महान शत्रु हैं ||३४||

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुतिष्ठतात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो            भयावहः ||

अर्थ -अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है |
अपने धर्म में तो मरणा भी कल्याण कारक है और दूसरे का  धर्म भय को देने वाला है ||३५||

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