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शनिवार, 27 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता -अथद्वितीयोऽध्यायः ( ५४- ७२ )


५४- ७२ स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा |

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ||

अर्थ-अर्जुन बोले हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि
पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ,कैसे बैठता है और
कैसे चलता है ?||५४||

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||

अर्थ - श्री भगवान् बोले - हे अर्जुन !जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण
कामनाओं  को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में  ही संतुष्ट
रहता है ,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः |
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ||

अर्थ - दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता ,सुखों की प्राप्ति
में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट  हो गए हैं , ऐसा
मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ॥५६॥

  यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ - जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त
होकर न प्रसन्न होता है और न दोष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ||५७||

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः |
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य  प्रज्ञा प्रतिष्ठा ||
  
अर्थ - और कछुवा सब ओर से जैसे अपने अङ्गो  को समेट लेता है ,वैसे ही
जब यह  पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हता लेता है ,
तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये |) ||५८||

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||

अर्थ - इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करणे वाले पुरुष के भी केवल
विषयतो निवृत्त हो जाते हैं ,परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं
होती | साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ||५९||

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||

अर्थ- हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथनस्वभाववाली
इन्द्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है ||६०||

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः |
वसे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ-इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन संपूर्ण इन्द्रियों को वश में
करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ,क्योंकि
जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती  हैं ,उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ||६१||

ध्यायतो   विषयान्पुंसः   सङ्गस्तेषुपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || 

अर्थ -विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो
 जाती है , आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना
में विघ्न पड.ने से क्रोध उत्पन्न होता है ||६२||

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

अर्थ-क्रोध से अत्यन्त मूढ.भाव उत्पन्न हो जाता  हैं, मूढ.भाव से स्मृति
में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का
नाश हो जाता है ,और बुद्धि का नाश हो जाने से यह  पुरुष अपनी स्थिति
से गिर जाता है ||६३||

रागद्वेषवियुक्तैस्तु  विषयानिन्द्रियैश्चरन् |
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसदमधिगच्छति ||

अर्थ - परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तः करण वाला साधक अपने वश में
की हुई,राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ
अन्तः करण की   प्रसन्नता को प्राप्त होता है ||६४||

 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठिते ||

अर्थ- अन्तःकरण  की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुःखों का अभाव
हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब
ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भांति स्थिर हो जाती है || ६५ ||

नास्ति बुद्धिर्युक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ||

अर्थ - न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि 
नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तः करण में भावना भी नहीं 
होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्ति 
रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ?||६६||
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ||

अर्थ- क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है वैसे ही 
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता 
है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ||६७||

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

अर्थ- इसलिये हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों 
से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं ,उसी कि बुद्धि स्थिर है ||६८||

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ||

अर्थ - संपूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है उस नित्य 
ज्ञान स्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है 
और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते
 हैं , परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के 
समान है ||६९||

 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं -
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे 
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ||

अर्थ - जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण ,अचल प्रतिष्ठा वाले 
समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे हीइ सब भोग
 जिस स्थित प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही
 समा जाते हैं ,वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है ,भोगों को चाहने 
वाला नहीं ||७०||

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निः स्पृहः |
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधि गच्छति ||

अर्थ-जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित,अहङ्कार 
रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है,वही शान्ति को प्राप्त होता है ,
अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है ||७१||

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||

अर्थ-हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है,इसको
 प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्त काल में भी
 इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ||७२|| 

               ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनित्सु ब्रह्मविद्यायां
                        योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो
                                     नाम द्वितीयोऽध्यायः ||२||

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