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बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - कर्मयोग, अथतृतीयोऽध्यायः ( १-८ )

श्रीमद्भगवद्गीता - कर्मयोग , अथतृतीयोऽध्यायः 

  १-८ ज्ञानयोगऔर कर्मयोग के अनुसार अनासक्तभाव से नियत कर्म
करने की श्रेष्ठता का निरुपण |

अर्जुन उवाच
ज्यायसि चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दना |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ||

अर्थ-अर्जुन बोले - हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ
मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हो ?|| १ ||

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ||

अर्थ- आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं |
इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण
को प्राप्त हो जाऊँ || २ ||

श्रीभगवानुवाच 
लोकेऽस्मिन्द्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||

अर्थ-श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप !इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा ( साधन
की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ' निष्ठा ' है | ) मेरे द्वारा पहले
 कही गयी है | उनमें से साङ्ख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से ( माया से
उत्पन्न हुए संपूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं ,ऐसे समझकर तथा मन ,इन्द्रिय
और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित
होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का
नाम ' ज्ञानयोग ' है , इसी को ' सन्यास ',' सान्ख्ययोग ' आदि नामों से कहा
 गया है | ) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से ( फल और आसक्ति को त्याग
 करभगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम
' निष्काम कर्मयोग ' है इसी को ' समत्वयोग ' ,' बुद्धियोग ' ,' कर्मयोग ' ,
' तदर्थकर्म ' ' मदर्थकर्म  ' ,' मत्कर्म ' आदि नामों से कहा गया है | )
होती है || ३ ||

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं  पुरुषोऽश्नुते |
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ||

अर्थ-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को ( जिस अवस्था को
प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते ,उस
 अवस्था का नाम ' निष्कर्मता ' है | )यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों
 के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा को ही  प्राप्त होता है ||४||

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ||

अर्थ- निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये
नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गणों द्वारा परवश हुआ
कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है ||५||

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||

अर्थ- जो मूढ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मनसे
 उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी
कहा जाता है ||६||

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ||

अर्थ- किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त
हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है,वही श्रेष्ठ है ||७||

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ||

अर्थ-तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर ;क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म
 करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर -निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ||८||

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