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रविवार, 7 सितंबर 2014

श्रीमद्भगवद्गीता - अथद्वितीयोअध्यायः ( ११-३० )



११-३० साङ्ख्ययोग का विषय |

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता ||

अर्थ - श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन ! तु न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये
शोक करता है और पण्डितों के -से वचनों को कहता है ;परन्तु जिनके प्राण
चले गये हैंउनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ||११||

न त्वेवाहं जातुं नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||

अर्थ - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था,तू नहीं था अथवा ये राजालोग
 नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ||१२||

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||

अर्थ -जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था हो है ,वैसे
ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ;उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ||१३||

 मात्राश्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||

अर्थ- हे कुन्तीपुत्र !सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों
 के संयोग तो उत्पत्ति विनाशशील और अनित्य हैं,इसलिये हे भारत ! उनको
 तू सहन कर ||१४||

 यं हि न व्यथयन्त्येते परुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||

अर्थ-क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख - सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष
 को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते ,वह मोक्ष के योग्य
होता है ||१५||

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः||

अर्थ- असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है |इस प्रकार
इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों  द्वारा देखा गया है ||१६||

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं तमम् |
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||

अर्थ-नाशरहित तो तू उसको जान ,जिससे ये संपूर्ण जगत् -दृश्य वर्ग व्याप्त है |इस
अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ||१७||

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||

अर्थ- इस नाशरहित ,अप्रमेय ,नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे
गये हैं | इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ||१८||

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||

अर्थ-जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है,वे
दोनोंही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और
न किसी के द्वारा मारा जाता है ||१९||

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||

अर्थ- यह आत्मा न तो किसी काल में भी तो  जन्मता है ,और न मरता ही है तथा न 
यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है ;क्योंकि यह अजन्मा ,नित्य,सनातन और 
पुरातन है;शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ||२०||

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् |
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||

अर्थ - हे पृथापुत्र अर्जुन !जो इस आत्मा को नाशरहित ,नित्य,अजन्मा और अव्यय 
जानता है,वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ?||२१||

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||

अर्थ- जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है ,
वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ||२२||

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||

अर्थ-इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट  सकते,इसको आग नहीं जला सकती ,इसको 
जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ||२३||

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽशोषय एव च |
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ||

 अर्थ - क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है ,यह आत्मा अदाह्य ,अक्लेद्य और 
निःसंदेह अशोष्य है तथा यह  आत्मा नित्य,सर्वव्यापी,अचल ,स्थिर रहने 
वाला और सनातन है ||२४||

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमोच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||

अर्थ- यह आत्मा अव्यक्त है , यह आत्मा अचिन्त्य है और यह  आत्मा विकार 
रहित कहा जाता है | इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर
 तू शोक  करने को योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है ||२५||

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ-किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला
 मानता हो ,तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ||२६||

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ - क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे
 हुए का जन्म निश्चित है | इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने
 योग्य नहीं है ||२७||

 अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
अव्यक्तानिधनान्येव तत्र का परिदेवना ||

अर्थ - हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने  के बाद भी 
अप्रकट हो जाने वाले हैं ,केवल बीच में ही प्रकट हैं ;फिर ऐसी स्थिति में क्या 
शोक करना है ? ||२८||

आश्चर्य वत्पश्यति कश्चिदेन -
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः |
आश्चर्यवच्चैनमन्यः  श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ||

अर्थ-कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही
दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा
दूसरा कोई अधिकारी पुरुष इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई -कोई तो
सुनकर भी इसको नहीं जानता ||२९||

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ||

अर्थ- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य ( जिसका वध नहीं
किया जा सके ) है | इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य
नहीं है ||३०||

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