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सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

उपनिषद् - ईशावास्योपनिषद्

ईशावास्योपनिषद
यह ईशावास्योपनिषद्  शुक्लयजुर्वेद  काण्वशाखीय संहिता का चालीसवाँ अध्याय है । मंत्र-भाग
 अंश होने से इसका विशेष महत्त्व है । यह  सबसे पहला उपनिषद्  है । शुक्लयजुर्वेद के  प्रथम
 उनतालीस अध्यायों में कर्मकाण्ड का निरूपण हुआ है यह उस काण्ड का सबसे अंतिम अध्याय है
 और इसमे ईश्वरतत्त्वरूप ज्ञानकाण्ड का निरूपण किया गया है ।  मंत्र में "ईशा -वास्यम्" वाक्य
 आने से इसका नाम "ईशावास्य" माना गया ।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पुर्नमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
अर्थ-वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है ।क्यूंकि पूर्ण से
ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण है , इसलिए भी वह
परिपूर्ण है । उस पूर्ण ब्रह्मा में से पूर्ण को निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही बचा रहता है ।
त्रिविध ताप  की शांति हो ।

ॐ ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ १ ॥
अर्थ -मनुष्यों के प्रति वेद के पवित्र आदेश हैं की इस जगत में जो कुछ भी स्थावर -जङ्गम है ,वह
 सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है अर्थात उसे भगवत्स्वरूप ही अनुभव करना चाहिए । उसके
त्याग भाव से तू अपना पालन कर ,अर्थात सब कुछ ईश्वर का है यह समझकर केवल कर्त्तव्य
पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो ।

 कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरा ॥ २॥
अर्थ -इस लोक में शास्त्र नियत कर्त्तव्य कर्मों को करते  हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें ।
इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए कर्म बंधन से मुक्त होने का इसके सिवा
और कोई मार्ग नहीं है । जिससे तुझे (अशुभ)कर्म का लेप ना हो ।

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।
 ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अर्थ - मानव शरीर अन्य सभी शरीरों से श्रेष्ठ और परम दुर्लभ है एवं वह जीव को भगवान की
विशेष कृपा से जन्म - मृत्युरूप संसार-समुद्र से तरने के लिए ही मिलता है । ऐसे जीवन को पाकर
भी जो मनुष्य केवल विषयों की प्राप्ति और उनके उपभोग में ही में लगे हुए हैं ,वे अपना ही पतन
 कर रहे हैं । वे न केवल अपने जीवन को व्यर्थ खो रहे हैं बल्कि अपने  को और भी अधिक कर्म
बंधन में जकड़ रहे हैं । इन काम -भोग-परायण लोगों को चाहे वे कोई भी क्यों ना हों ,उन्हें चाहें
संसार  में कितने ही विशाल नाम ,यश ,वैभव या अधिकार प्राप्त हों मरने के बाद कर्मों के
फलस्वरूप बार -बार उन कूकर -शूकर ,कीट ,पतंगादि विभिन्न शोक -संतापपूर्ण आसुरी योनियों
में और भयानक नरकों में भटकना पड़ता है । इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि  मनुष्य को
 अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए ,अपना पतन नहीं करना चाहिए (६/५) ॥

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४ ॥
अर्थ -  वो परमेश्वर एक अचल और एक ही है ,वह मन से भी अधिक तीव्र वेग युक्त है । जहाँ तक मन की गति है ,वे उससे भी कहीं आगे पहले से ही विद्यमान हैं । मन तो वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता है । वे सबके आदि  और ज्ञानस्वरूप हैं ।पर उनको तो देवता तथा महर्षि भी पूर्ण रूप से जान नहीं  सकते (गीता १०. १२)जितने भी तीव्र
वेग युक्त बुद्धि ,मन और इन्द्रियाँ अथवा वायु आदि देवता हैं ,अपनी शक्ति भर परमेश्वर के अनुसंधान में दौड़ लगाते रहते हैं ;परन्तु परमेश्वर नित्य अचल रहते हुए ही उन सबको पार करके आगे निकल जाते हैं । वे सब वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते ।असीम की सीमा का पता ससीम को कैसे लग सकता है।बल्कि वायु आदि देवताओं में जो शक्ति है ,जिसके द्वारा वह जलवर्षण ,प्रकाशन ,प्राणिप्राणधारण आदि कर्म करने में समर्थ होते हैं वह इन अचिन्त्य शक्ति परमेश्वर की शक्ति का एक अंश मात्र ही है । उनका सहयोग मिले बिना ये सब कुछ भी नहीं कर सकते ॥


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