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बुधवार, 21 जनवरी 2015

श्रीमद्भगवद्गीता , अथ चतुर्थोऽध्यायः (१९ -२३)

१९ -२३ योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा |

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः |
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ||

अर्थ - जिसके संपूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और सङ्कल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त
कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं ,उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं || १९||

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चि त्करोति सः ||

अर्थ - जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय
से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है ,वह कर्मों में भली भाँति बर्तता हुआ भी वास्तव
में कुछ भी नहीं करता ॥२०॥

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥

अर्थ - जिसका अन्तः करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों
की सामग्री का परित्याग करा दिया है , ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता
हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता ॥२१॥

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥

अर्थ - जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है ,जिसमें ईर्ष्या का
सर्वथा अभाव हो गया है ,जो हर्ष - शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया है - ऐसा सिद्धि
 और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मायोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता ॥२२॥

 गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः |
यज्ञाया चरतः  कर्म  समग्रं  प्रविलीयते ||

अर्थ - जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है , जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है ,
जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है -ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिये
कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं ॥२३॥

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