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शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

उपनिषद् साहित्य

उपनिषद् साहित्य -
विषय की दृष्टि से वेदों के तीन भाग हैं जो कि तीन काण्ड कहलाते हैं -
१. कर्मकाण्ड
२. उपासना काण्ड
३. ज्ञानकाण्ड ।
उपनिषद् वेद का ज्ञानकाण्ड हैं । वेदों का अंतिम भाग होने की कारण इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है । उपनिषदों में ही वेद का सर्वोत्कृष्ट  सारतत्व और प्रधान लक्ष्य निहित है । मानव जीवन का लक्ष्य पारमार्थिक सत्य का ज्ञान प्राप्त करना है ,जिसके लिए उपनिषद् प्रमाण ग्रन्थ हैं । उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अंतर्गत  ब्रह्मयज्ञ के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं । उपनिषद् हमारे लिए उस आध्यात्मिक प्रकाश का साधन हैं ,जिससे परम सत्य का स्वरूप उद्घाटित होता है ,मानव का मन निर्मल होता है । उपनिषदों के विषय बहुत गूढ़ ,जनसाधारण की समझ से परे और अनेक शंकाओं को उत्पन्न करने वाला है । उपनिषदों का ज्ञान रहस्यमय और गुह्य है ।
उपनिषद् नाम  -
उपनिषद् नाम के निर्वचन उसके मूल स्वरूप एवं विषय के सम्यक् अभिव्यञ्जक हैं । उपनिषद् शब्द उप (निकट )और नि (नीचे )उपसर्गपूर्वक सद् (बैठना )धातु में क्विप् प्रत्यय लगाने से सिद्ध होता है । इसका अर्थ है -गुरु के समीप रहस्य ज्ञान की प्राप्ति की लिए नीचे बैठना । तात्पर्य यह है कि उपनिषद् वह विद्या है जो योग्य अन्तेवासी शिष्य द्वारा गुरु के अत्यंत निकट नीचे बैठकर प्राप्त की जाती है क्योंकि वह अत्यंत गुप्त और गूढ़ है । उपनिषद् भाष्यकार आद्य शंकराचार्य के अनुसार उपनिषद् शब्द उप और नि उपसर्ग पूर्वक सद्(विशरण ,गति और अवसादन )धातु में क्विप् प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है ,और इसका शाब्दिक अर्थ है ब्रह्मविद्या जो  परिशीलन द्वारा मुमुक्षुजनों की संसारबीजभूता अविद्या का विनाश (विशरण ) करती है ,जो उन्हें ब्रह्म के पास पहुँचा देती है ,और जो उनके पुनर्जन्म करने वाले कर्मों तथा गर्भवास आदि दुःखों को सर्वथा शिथिल कर देती है ।
सयाण लिखते हैं -
वेदान्तोपनिषद् वाक्यानि । 
वेदान्तसार में कहा है -
वेदनतोनामोपनिषद् प्रमाणम् । 
अथर्ववेद में १९.१४. १ में 'उपनिषेदुः'  शब्द  आता है तथा ऋग्वेद ९. ११. ६ में  ' नमसा उपसीदत ' इन पदों के दर्शन से उपनिषदों की वैदिकता स्वयं सिद्ध है । सामान्यतः वैदिक साहित्य नाम से वेद,आरण्यक ,ब्राह्मण
और उपनिषद् का ही स्मरण होता है । उपनिषदों की वैदिकता के सम्बन्ध में वानप्रस्थ प्रकरण में मनु महाराज कहते हैं - 
एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रोवने वसन् । 
विविधाश्चौपनिषदीरात्मंससिद्धये  श्रुतीः ॥ मनु.६ . २८  
 उपनिषदों में कहा गया है कि यह ज्ञान पुत्र और शिष्य से भिन्न किसी को नहीं दिया जाना चाहिए ।
तमेतं नापुत्राय वाऽनन्तेवासिने वा ब्रूयात् । 
कीथ के शब्दों में ''उपनिषद् शब्द जब किसी ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त होता है ,तब सामन्यतया इस बात का बोध कराता है कि यह मुख्यतया विश्व एवं आत्मा अथवा ब्रह्म से सम्बद्ध संवाद को प्रस्तुत करता है ।''
ए. बी.कीथ,वैदिक धर्म एवं दर्शन पृ.६१२
उपनिषदों की संख्या -
उपनिषद् साहित्य बहुत विशाल है क्योंकि यह बहुत बाद तक विकसित होता रहा है । इनकी संख्या विद्वजनों में मतभेद का विषय है । मुक्तिकोपनिषद् में कहा गया है की १०८ उपनिषदों के अध्ययन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है -
सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम् । 
सकृच्छ्रवणमात्रेण सर्वाधौधनिकृन्तनम् ॥ मुक्तिकोपनिषद् १. ३०. ३९ 
प्रमुख उपनिषद् -
मुख्य रूप से दस उपनिषद् सर्वाधिक प्राचीन और प्रामाणिक माने जाते हैं । आचार्य शङ्कर ने इन दसों उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है -
  ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकम् तथा ॥ (मुक्तिकोपनिषद् १. ३०)
ये ही उपनिषद् प्राचीन तथा प्रामाणिक माने जाते हैं । इनके अतिरिक्त कौषीतकि उपनिषद् ,श्वेताश्वतर उपनिषद् ,तथा मैत्रायणीय उपनिषद् भी प्राचीन स्वीकृत हैं । आचार्य शङ्कर ने ब्रह्म सूत्र भाष्य में दशोपनिषद् के साथ प्रथम दोनों को भी उद्धृत किया है ,किन्तु उन्होनें इन पर भाष्य की रचना नहीं की है । श्वेताश्वतर उपनिषद् पर जो शांकर भाष्य है ,वह आदि शंकराचार्य का नहीं है । इस प्रकार ये ही तेरह उपनिषदें वेदांत तत्व की प्रतिपादिका होने से विशेष श्रद्धेय हैं ।  

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